Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ १०१ दर्शन के सातिशय फल को एवं उसकी मोक्षमार्ग में प्रगति को बतलाना इस कारिका का प्रयोजन है । सम्यग्दृष्टि भवनत्रिक में पैदा नहीं होता । नियम से वैमानिक देव ही होता है । यद्यपि मिथ्यादृष्टि भी वैमानिकों में उत्पन्न होते हैं किन्तु इस कारिका में जो विशेषण बतलाये हैं वे वैमानिक सम्यग्दृष्टि देव के ही सम्भव हैं। सम्यग्दृष्टि जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेते तब तक वे नियम से देवगति और मनुष्यगति के उत्तमोत्तम पदों को प्राप्त करते रहते हैं । वे आभियोग्य तथा किल्विषक जैसे देवों में जन्म नहीं लेते । यहाँ अष्टगुण शब्द से-अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व इन आठ भेदों को ग्रहण किया गया है । अणिमा--इतना छोटा शरीर बना लेना कि कमल की नाल के छिद्र में बैठ जाना और
वहीं पर चक्रवर्ती के परिवार और विभूति को उत्पन्न कर सकना । महिमा-मेरु से भी बड़ा शरीर बना लेना । लघिमा--बायु से भी हलका शरीर बना लेना । गरिमा -वज्र से भी भारी शरीर बना लेना । प्राप्ति-पृथ्वी पर बैठे-बैठे ही अंगुली के अग्रभाग से मेरु के शिखर या सूर्य के बिम्ब
का स्पर्श कर सकना। प्राकाम्य-जल पर भूमि के समान चलना और भूमि पर जलवत् चलना अर्थात्
डुबकी लगाना, तैरना आदि । ईशित्व-(ईशिता) जिससे साधक सब पर शासन कर सकता है। वशित्व-चाहे जिसको वश कर लेना ।
देवों के शरीर में बन्धन-संघात की अपेक्षा विशेषता होती है। आगे-आगे के देवों में शरीर छोटा होता जाता है किन्तु प्रदेशों का प्रचय संख्या की अपेक्षा
१. अन्य ग्रन्थों में आठ सिद्धियों में गरिमा को सम्मिलित किया गया है पर यहां संस्कृत-टीकाकार ने
गरिमा के स्थान में कामरूपित्व को लिया है जिसका अर्थ है-एक समय में अनेक और नाना प्रकार के रूप बना लेना।