Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार ये 'दृष्टिविशिष्टाः' सम्यग्दर्शनोपेता। 'जिनेन्द्रभक्ताः' प्राणिनस्ते 'स्वर्ग'। 'अमराप्सरसां परिषदि'-देवदेवीमा सभायां । 'चिरं' बहुतरं कालं । 'रमन्ते' क्रीडन्ति । कथंभूताः ? 'अष्टगुणपुष्टितष्टाः' अष्टगुणा अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्तिः, प्राकाम्यं, ईशित्वं, वशित्वं, कामरूपित्वमित्येतल्लक्षणास्ते च पुष्टि: स्वशरीरावयवानां सर्वदोपचितत्वं तेषां वा पुष्टि : परिपूर्णत्वं तया तुष्टाः सर्वदा प्रमुदिता: । तथा 'प्रकृष्टशोभाजुष्टा' इतरदेवेभ्यः प्रकृष्टा उत्तमा शोभा तया जुष्टा सेविताः इन्द्राः सन्त इत्यर्थः ।३७।
इन्द्रपद भी सम्यग्दृष्टि जीव ही प्राप्त करते हैं, यह कहते हैं
(दृष्टिविशिष्टाः) सम्यग्दर्शन से सहित (जिनेन्द्रभक्ता:) जिनेन्द्र भगवान के भक्त पुरुष (स्वर्ग) स्वर्ग में (अमराप्सरसा परिषदि) देव-देवियों की सभा में (अष्टगुणपष्टितुष्टाः) अणिमा आदि आठ गुण तथा शारीरिक पुष्टि अथवा अणिमादि आठ गुणों की पुष्टि से सन्तुष्ट और (प्रकृष्ट शोभा जुष्टाः) बहुत भारी शोभा से युक्त होते हुए (चिरं) चिरकाल तक (रमन्ते) क्रीड़ा करते हैं ।
___टोकार्थ-जिनेन्द्र भक्त सम्यग्दृष्टि जीव यदि स्वर्ग जाते हैं तो वहाँ इन्द्र बनकर देव और देवियों की सभा में चिरकाल तक-सागरों पर्यंत रमण करते हैं-क्रीडा करते हैं। वहाँ पर वे अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व और कामरूपित्व इन आठ ऋद्धियों से सम्पन्न होते हैं और अपने शरीर सम्बन्धी अवयवों की पुष्टी-परिपूर्णता सहित सर्वदा हर्षित रहते हैं तथा अन्य देवों में नहीं पायी जाने वाली उत्तम शोभा युक्त होते हैं ।
विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टि के सप्त परमस्थानों में से चौथे सुरेन्द्रता नामक परम स्थान का निरूपण करना इस कारिका का प्रयोजन है। यह सुरेन्द्रपदनामक परमस्थान भी आगम में कन्वय क्रियाओं का वर्णन करते हुए बतलाया है कि यह पारिवाज्य नामक परमस्थान का ही फल है। सुरेन्द्रता से मतलब केवल इंद्र पद से नहीं अपितु इंद्र, प्रतीन्द्र, अहमिन्द्र, लोकपाल, लौकान्तिक आदि अन्य महद्धिक वैमानिक देवों से भी है । क्योंकि आचार्यश्री सम्यग्दर्शन के असाधारण फल को बतला रहे हैं।
प्रथम तीन परमस्थान तो सामान्य से सम्यग्दृष्टि और मिथ्याष्टि दोनों को ही प्राप्त होते हैं। किन्तु शेष चार स्थान तो सम्यग्दष्टि को ही प्राप्त होते हैं। सम्यर- .