Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
इस हुण्डावसर्पिणीकाल के निमित्त से द्रव्य मिथ्यात्व की उत्पत्ति हो गई है और दिन-दिन बढ़ती जा रही है, ऐसो स्थिति में जीवों के सम्यग्दर्शन और उसकी विशुद्धि बने रहना अत्यन्त कठिन हो गया है और कठिन होता जा रहा है । इसलिए सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के लिए और उसको स्थिर रखने के लिए तथा उसके आठ अंगों के परिपालन करने के लिए तीन मूढ़ता और आठ मद का त्याग कर भव्य जीवों को चाहिए कि वे कुदेव कुशास्त्र और कुलिंगियों को प्रणाम तथा उनका सत्कारादि न करें । आज जो अनेक प्रकार के पाखण्डों का प्रचार-प्रसार एवं वृद्धि होती दिखाई दे रही है उसके अन्तरंग एवं वास्तविक कारण भय, आशा, स्नेह और लोभ ही हैं इसलिए कैसा भी भयंकर प्रसंग आ जाने पर भी कुदेवादिके भय से अभिभूत नहीं होना चाहिए । ३० । ननु मोक्षमार्गस्य रत्नत्रयरूपत्वात् कस्माद्दर्शनस्यैव प्रथमतः स्वरूपाभिधानं कृतमित्याह-
दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ॥ ३१॥
'दर्शनं' कर्तृ ' उपाश्नुते' प्राप्नोति । कं ? 'साधिमानं' साधुत्वमुत्कृष्टत्वं वा । कस्मात् ? ज्ञानचारित्रात् । यतश्च साधिमानं तस्माद्दर्शनमुपाश्नुते । 'तत्' तस्मात् । 'मोक्षमार्गे' रत्नत्रयात्मके 'दर्शन' कर्णधार' प्रधानं प्रचक्षते । यथैव हि कर्णधारस्य नौरवेवटकस्य कैवर्तकस्याधोना समुद्रपरतीरगमने नाव: प्रवृत्तिः तथा संसार समुद्र पर्यन्तगमने सम्यग्दर्शन कर्णधाराधीना मोक्षमार्गनावः प्रवृत्तिः ||३१||
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि मोक्षमार्ग तो रत्नत्रयरूप है, फिर सबसे पहले सम्यग्दर्शन का ही स्वरूप क्यों कहा गया ? इसका उत्तर देते हैं
( यत् ) जिस कारण ( दर्शनं ) सम्यग्दर्शन (ज्ञानचारित्रात् ) ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा ( साधिमानं ) श्रेष्ठता या उत्कृष्टता को ( उपाश्नुते ) प्राप्त होता है (तत्) उस कारण से (दर्शनं) सम्यग्दर्शन को (मोक्षमार्गे) मोक्षमार्ग के विषय में (कर्णधार) खेवटिया ( प्रचक्षते ) कहते हैं ।
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टीकार्थ - जिस प्रकार समुद्र के उस पार जाने के लिए नाव को उस पार पहुँचाने में खेवटिया मल्लाह की प्रधानता होती है, उसी प्रकार संसार-समुद्र से पार होने के लिए मोक्षमार्गरूपी नाव की प्रवृत्ति सम्यग्दर्शनरूप कर्णधार के आधीन होती