Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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होने से यादव के बन्ध का तथा संसार भ्रमण का कारण है । सम्पूर्ण कर्मों का राजा या शिरोमणि मोहनीय कर्म है अतएव जहाँ तक उसका अस्तित्व बना हुआ है वहाँ तक सभी कर्म बने रहते हैं । किन्तु उसके हटते ही सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं । जब मोह के साथ सभी कर्मों का इस तरह का सम्बन्ध है तब मोह का निमित्त न रहने पर अन्य कर्म अपना फल देने में असमर्थ हो जायें तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है । यह स्पष्ट है कि मोह का क्षय होते ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये तीनों घातिया कर्म एक साथ क्षीण हो जाते हैं । विद्यमान आयु कर्म को छोड़कर क्षपकश्रेणी चढ़ने वाले जीव के अन्य किसी भी आयु का सत्व नहीं रहा करता और बन्ध भी नहीं होता, केवल वेदनीय का भी जो बन्ध है वह भी उपचरित है वास्तविक नहीं, क्योंकि वास्तविक बन्ध में भी कम से कम अन्तर्मुहूर्त की स्थिति का पड़ना जरूरी है । किन्तु उपशान्तमोह और क्षीणमोह व्यक्ति के जो वेदनीय कर्म का बन्ध है वह मात्र एक समय की स्थिति वाला होता है। मोह के तीव्रोदय की अवस्था में ये अघातिया कर्म जैसा कुछ फल दिया करते हैं वैसा मोह अभाव में मानना नितान्त असंगत है । अतएव मोह के तीव्र उदय और उदीरणा के साहचर्य के निमित्त से होने वाले क्षुधा, तृषा, रोग उपसर्ग आदि को जीवन्मुक्त सर्वज्ञ के बताना सर्वथा अप्रामाणिक है । अथोक्तदोषैर्वजितस्याप्तस्य वाचिको नाममालां प्ररूपयन्नाह -
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परमेष्ठी परंज्योतिविरागो विमलः कृतो । सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलात्यते ॥७॥
परमे इन्द्रादीनां वन्द्ये पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी । परं निरावरणं परमातिशयप्राप्तं ज्योतिर्ज्ञानं यस्यासी परमज्योतिः । विरागो' विगतो रागो भावकर्म यस्य । 'बिमलो' विनष्टो मलो द्रव्यरूपो मूलोत्तरकर्मप्रकृतिप्रपंचो यस्य । 'कृती' निःशेष हेयोपादेयतत्त्वे विवेकसम्पन्न: । 'सर्वज्ञो' यथावन्निखिलार्थ साक्षात्कारी । 'अनादिमध्यान्तः ' उक्तस्वरूपप्राप्तप्रवाहापेक्षया आदिमध्यान्तशून्यः । ' सार्व:' इह परलोकोपकारक मार्गप्रदर्शकत्वेन सर्वेभ्यो हितः । 'शास्ता' पूर्वापरविरोधादिदोषपरिहारेणा खिलार्थानां यथावत्स्वरूपोपदेशकः । एतैः शब्दैरुक्तस्वरूप आप्त 'उपलालयते' प्रतिपाद्यते ||७||
आगे पूर्वोक्त दोषों से रहित आप्त की नामावली का निरूपण करते हैं
परमेष्ठीति - ( स आप्तः ) वह आप्त ( परमेष्ठी ) परमेष्ठी ( परंज्योतिः ) परंज्योति (विरागः ) विराग ( विमलः ) विमल (कृती) कृती - कृतकृत्य ( सर्वज्ञः ) सर्वज्ञ