Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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से नीच गोत्र का बन्ध होता है इसलिये सम्यग्दर्शन को सांगोपांग और निर्दोष रखने के लिए इन अहंकारादि भावों का त्याग करना चाहिए ।
ज्ञानादिक अभिमान के विषय अवश्य कहे गये हैं किन्तु हेय नहीं हैं, इनका (मद करना हैय हैं | ज्ञानादिक तो प्रयोजनभूत हैं क्योंकि कोई भी सम्यग्वष्टि जिनदीक्षा लेने के लिए उत्सुक होता है, उसके ये आठ ही विषय किसी-न-किसी रूप में आवश्यक हो जाते हैं । दीक्षा ग्रहण करने वाले शिष्य के विषय में दीक्षा देने के पहले देखते हैं कि इसका कुल, जाति ज्ञानादिक कैसे हैं क्योंकि जो धैर्यशील, विचारशील, शान्त, बुद्धिमान, कुल, गोत्र की शुद्धि आदि से युक्त है वही दीक्षा लेने का पात्र होता है । निन्द्य कुलोत्पन्न हीनांग, विकलांग, विरूप, दीक्षा के अयोग्य माना गया है । इसलिये ये सब गुण होने पर उनका घमण्ड नहीं करके प्राप्त साधनों का लाभ उठाना चाहिए और अपने से अधिक गुणवानों की ओर दृष्टि रहनी चाहिए ||२५||
अनेनाष्टविधमदेन चेष्टमानस्य दोषं दर्शयन्नाह
स्मयेन योज्यानत्येति धर्मस्थान् गविताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं, न धर्मो धार्मिकविना ॥ २६ ॥
'स्मयेन' उक्तप्रकारेण | 'गर्विताशयो' दर्पितचित्तः । 'यो' जीवः । 'धर्मस्थान' रत्नत्रयोपेतानन्यान् 'अत्येति' अवधीरयति अवज्ञयातिक्रामतीत्यर्थः । 'सोऽत्येति' अवधीरयति । कं ? 'धर्म' रत्नत्रयं । कथंभूतं ? 'आत्मीयं' जिनपतिप्रणीतं । यतो धर्मो 'धार्मिके : ' रत्नत्रयानुष्ठायिभिविना न विद्यते ॥२६॥
आठ प्रकार के मद से प्रवृत्ति करने वाले पुरुष के क्या दोष उत्पन्न होता है ? यह दिखलाते हुए कहते हैं
( स्मयेन) उपर्युक्त मद से (गविताशयः ) गर्वितचित्त होता हुआ (यः) जो पुरुष ( धर्मस्थान ) रत्नत्रयरूप धर्म में स्थित ( अन्यान् ) अन्य जीवों को ( अत्येति ) तिरस्कृत करता है ( स ) वह (आत्मीयं ) अपने (धर्म) धर्म को ( अत्येति ) तिरस्कृत करता है क्योंकि ( धार्मिकविना ) धर्मात्माओं के बिना ( धर्मः ) धर्म (न) नहीं होता ।
टीकार्थ — जिन आठ मदों का पहले वर्णन किया गया है, उनके विषय में अहंकार को करता हुआ जो पुरुष रत्नत्रयरूप धर्म में स्थित अन्य धर्मात्माओं का