Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ ७९
वेष, मिथ्या आचरण, मोक्षमार्ग के नाम पर स्वेच्छाचार, सावधक्रिया करना, खान पान के विवेक से रहित, विवाह आदि कार्यों में अनुराग रखना, मिथ्योपदेश पंचाग्नितप तपना, जटाजूट धारण, यज्ञहोमादि कर्म, पशु पालन, चेला-चेली से संतानोत्पादन, रक्षण, अस्त्र-शस्त्र धारण करना, ये सब सावध और हिंसा से सम्बन्धित हैं इन कार्यों को करते हुए भी जो अपने को साधु सन्यासी प्रकट करता है, ऐसे स्वैराचार प्रवृत्ति रखने वाले कुगुरु कहलाते हैं। क्योंकि ये आगम की आज्ञा के विरुद्ध हैं। और अन्य भोले प्राणी उनसे ठगे जाते हैं। वे अपने सावद्यकर्मों के द्वारा स्वयं को तो संसार में डुबोते ही हैं और साथ-साथ अपने अनुयायी को भी संसार समुद्र में डुबो देते हैं, इसलिए सम्यग्दृष्टियों को चाहिए कि ऐसे खोटे साधुओं का सत्कारादि करके अपने सम्यग्दर्शन को मलिन न करें ।।२४।।।
कः पुनरयं स्मयः कतिप्रकारश्चेत्याह
ज्ञानं पूजां कुलं जाति, बलमृद्धि तपो वपुः ।
अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥२५॥ 'आहु' अवन्ति । कं ? 'स्मयं' । के ते ? 'गतस्मयाः' नष्टमदाः जिनाः । किं तत् ? 'मानित्वं' गवित्वं । कि कृत्वा ? अष्टावाश्रित्य । तथा हि । ज्ञानमाश्रित्य ज्ञानमदो भवति एवं पूजां कुलं जाति बलं ऋद्धिमैश्वर्यं तपो वपुः शरीरसौन्दर्यमाश्रित्य पुजादिमदो भवति । ननु शिल्पमदस्य नवमस्य प्रसक्तेरष्टाविति संख्यानुपपन्ना इत्यप्ययुक्त तस्य ज्ञाने एवान्तभवात् ।।२५।।
अब, स्मय-गर्व क्या है और वह कितने प्रकार का है ? यह कहते हैं
(ज्ञान) ज्ञान ( पूजां ) पूजा ( कुलं ) कुल ( जाति ) जाति ( बलं ) बल (ऋद्धि) ऋद्धि (तपः) तप और (वपु:) शरीर इन (अष्टौ) आठ का (आश्रित्य) आश्रय लेकर ( मानत्वं ) गदित होने को ( गतस्मया: ) गर्व से रहित गणधरादिक (स्मयं) गर्व-मद (आहुः) कहते हैं ।
टीकार्थ-जिनका मद नष्ट हो गया है ऐसे जिनेन्द्रदेव ज्ञानादिक आठ वस्तुओं के आश्रय से जो गर्व उत्पन्न होता है उसे मद कहते हैं। अपने क्षायोपशमिकज्ञान का घमण्ड करना ज्ञानमद कहलाता है । अपनी पूजा-प्रतिष्ठा-सम्मान आदि का