Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार 'पापण्डिमोहन' । 'ज्ञेयं ज्ञातव्यं । कोऽसौ ? 'पुरस्कार:' प्रशंसा। केषां ? 'पाषण्डिना' मिथ्यादृष्टिलिंगिनां । किविशिष्टानां ? 'सग्रन्थारम्भ हिंसाना' ग्रंथाश्च दासीदासादयः, आरम्भाश्च कृष्वादयः हिंसाश्च अनेकविधाः प्राणिवधा: सह ताभिर्वर्तन्त इत्येवं ये तेषां तथा 'संसारावर्तवर्तिनां' संसारे आवर्तो भ्रमणं येभ्यो विवाहादिकर्मभ्यस्तेषु वर्तने इत्येवं शीलास्तेषां । एतस्त्रिांगभू सोढत्वसम्पन्न सम्यग्दर्शनं संसारोच्छित्तिकारणं अस्मयत्वसम्पन्नवत् ।।२४।।
अब सम्यग्दर्शन के स्वरूप में पाखण्डिमढ़ता का स्वरूप दिखाते हुए कहते हैं
। सग्रन्थारम्भ हिंसानां ) परिग्रह, आरम्भ और हिंसा से सहित तथा (संसारावर्तवर्तिनाम्) संसारभ्रमण के कारणभूत कार्यो में लीन ( पाषण्डिनां ) अन्य कुलिगियों को (पुरस्कारः) अग्रसर करना, ( पाषण्डिमोहनं ) पाषण्डिमूढ़ता-गुरुमूढ़ता (ज्ञेयं) जाननी चाहिए।
टीकार्थ-जो दासी-दास आदि परिग्रह, खेती आदि आरम्भ और अनेक प्रकार की प्राणिवधरूप हिंसा से सहित हैं तथा जो संसार-भ्रमण कराने वाले विवाह आदि कार्यों में संलग्न हैं, ऐसे साधुओं की प्रशंसा करना, उन्हें धार्मिक कार्यों में अग्रसर करना पाखण्डमढ़ता जाननी चाहिए । पाखण्डी का अर्थ मिथ्यावेषधारी गुरु होता है। मुढ़ता-अविवेक को कहते हैं। इस प्रकार गुरु के विषय में जो अबिवेक है वह पाखण्ड मूढ़ता है। उपर्युक्त तीन मूढ़ताओं से रहित सम्यग्दर्शन ही संसार के उच्छेद का कारण है । जैसा कि आठ मदों से रहित सम्यग्दर्शन संसार के नाश का कारण है।
विशेषार्थ-प्रकृत कारिका में पाखण्डियों अर्थात् कुगुरुओं से बचकर चलने का उपदेश है। 'पान्ति रक्षन्ति पापात्-संसारात् इति पाः आगमवाक्यानि तानि खण्डयति इति पाखण्डी' अर्थात् जो मोक्षमार्ग या आत्मकल्याण के उपदेश का खण्डन करने वाले अथवा उसके विरुद्ध चलने वाले हों, उनको पाखण्डी कहते हैं। ऐसे पाखण्डियों को सम्मान प्रशंसा स्तुति आदि के द्वारा बढ़ावा देना, उनको नेतृत्व देना आदि पुरस्कार कहलाता है । इस प्रकार कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव यदि पाण्डियों का पुरस्कार करता है तो वह अपने सम्यग्दर्शन को मढ़ता की तरफ ले जाता है। पाखंडी का लक्षण ऊपर बताया जा चुका है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि नीची क्रिया ऊँचा