Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार उत्तर-निश्चयदृष्टि से तो अपनी आत्मा ही आराध्य है, तो क्या अरिहन्तदेव की पूजा-आराधना करना मिथ्यात्व माना जायेगा ? नहीं। क्योंकि जो बात जिस अपेक्षा से कही है उसको उस अपेक्षा से मानने में कोई हानि नहीं है, अपितु मुण है और इसी से इस लोक तथा परलोक का व्यवहार अविरोधरूप से सिद्ध हो जाता है । इसी प्रकार शासनदेवों की जो पूजा बतलाई है वह नियोगदान है। नियोगदान मिथ्यात्व का कारण नहीं है। बड़े-बड़े राजा-महाराजा चक्रवर्ती भी अपने-अपने नियोगियों का यथावसर उनके योग्य वस्तु आदि देकर सम्मान करते हैं। उसी प्रकार त्रिलोकीनाथ अरिहन्तदेव के शासन में अधिरक्षक पद पर नियुक्त इन देवों को भी भगवान के अभिषेक-पूजन के पूर्व आह्वानादि कर योग्य दिशाओं में बिठाकर उनके योग्य ही सामग्री देकर उनका उचित सम्मान करना चाहिए। ऐसा करना अनुचित नहीं अपितु भगवान के प्रभाव को व्यक्त करना है ।
देवसेन प्राचार्य ने प्राकृत भावसंग्रह में कहा है
आवाहिऊण देवे सुखई सिहि-काल-णेरिए-वरणे । पवणे जखे ससूली सपिय सवासणे ससत्थं य ॥४३६॥ दाऊण पुज्ज दध्वं बलि चल्यं तहय अण्णभायं च ।
सच्थेसि मंतेहि य योयक्खर णामजुत्तेहिं ॥४४०॥
अर्थात्-इंद्र-अग्नि-यम-नैऋत-वरुण-पवन यक्ष और ईशान इन आठ दिकपालों को अपने-अपने आयुध-वाहन-युवतिजन सहित बीजाक्षर नाम सहित मंत्रों के द्वारा आह्वान करके पूजा-द्रव्य, वलिचरु तथा यज्ञभाग प्रदान करे ।
एवं पूज्यपाव स्वामी ने भी महाअभिषेक पाठ में कहा हैपूर्वाशादेश-हव्यासन-महिषगते-नैऋते-पाशपाणे, वायो-पक्षेन्द्र-चन्द्राभरण-फणिपते-रोहिणी जीवितेश । सर्वेऽप्यायात यानायुषयुवति जनः सार्धमों भूवः स्वः, स्वाहा गृलोत चायं चरुममृतमिदं स्वास्तिकं यज्ञभागम् ।।११॥
इसका अभिप्राय भी वही है। इसमें भी यान् आयुध, युवतिसहित इंद्रादिक दश दिकपालों का मंत्र पूर्वक आह्वान किया गया है और उनसे अर्घ्य, चरू अमृत,