Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार प्रमाणों को ग्रहण किया है। आप्त के द्वारा प्रणीत शास्त्र इन प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों के विरोध से रहित है । तथा जीव अजीवादि सात प्रकार के तत्त्वों का उपदेश करने वाला है। अथवा अपने-अपने यथार्थ स्वरूप से सहित छह द्रव्यों का उपदेश करने वाला है। 'सर्वेभ्योहितंसार्व' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सब जीवों का हित करने वाला है यह यथावत् स्वरूप के प्ररूपण के बिना घटित नहीं हो सकता। और कुत्सितखोटा मार्ग जो कि मिथ्यादर्शनादिक हैं उनका निराकरण करने वाला है। शास्त्र की ये सभी विशेषताएँ आप्तप्रणीत होने पर ही सिद्ध हो सकती हैं।
विशेषार्थ-इस भरत क्षेत्र में अभी हुण्डावसर्पिणी काल का प्रवर्तन है, इस काल दोष के निमित्त से अनेक प्रकार के द्रव्यरूप मिथ्याधर्मों की भी उद्भुति हो गई है। ऐसी अवस्था में प्राणी मात्र के हित की भावना से ग्रन्थप्रणयन में प्रवृत्त आचार्यों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि मुमुक्षु जीव भ्रान्तिवश अथवा विपरीत मार्ग का आश्रय लेकर अकल्याण को प्राप्त न हों, इसलिये असत्य सिद्धान्तों का निराकरण करने और सत् सिद्धान्तों के वास्तविक मल का परिणाम करने वाला उपदेश दे । वर्तमान में तीनसौ तरेसठ पाखण्डमत पाये जाते हैं। इन्हींने विभिन्न मान्यताओं के अनुसार अनेक प्रकार से खोटे शास्त्रों को रचकर जमत् को सत्यार्थ धर्म से भ्रष्ट किया है।
इसी आशय को लेकर परम कारुणिक आचार्य समन्तभद्र ने यहाँ पर आगम के स्वरूप का प्रतिपादन किया है । आगम के विषय में लोगों को स्वरूपविपर्यास, फलविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास आदि अनेक प्रकार के विपर्यास बैठे हुए हैं। उन सबका निराकरण करने वाला 'कापथघट्टनम्' विशेषण है । आप्त शब्द का अर्थ तो पांचवीं गाथा में बतला ही दिया है । आप्त परमेष्ठी की दिव्यध्वनि को सुनकर गणधरदेवादि आचार्य परम्परा से उसका प्रवाह चला आ रहा है । प्रत्येक तीर्थकर अपने-अपने समय के उपज्ञ होते हैं । अभी इस भरतक्षेत्र में जो आगम प्रवर्तमान है उसके उपज्ञ भगवान महावीर हैं, इस दृष्टि से आगम सादि सान्त भी है परन्तु प्रवाह की अपेक्षा अनाद्यनन्त है । यह कथन स्याद्वाद इष्टि से अविरुद्ध एवं सत्य है, परन्तु स्याद्वाद को नहीं मानने वाले एकान्तबादी का कथन युक्ति पूर्ण नहीं है क्योंकि उसके मूलका आप्त नहीं हैं । 'आप्तोपम' इस विशेषण से स्वरूप विपर्यास के मूलभूत उस एकान्तवाद का खण्डन हो जाता है, तथा 'वेद' आदि की अनादिता का समर्थन भी नहीं हो सकता।