Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
सुख में जो ( अनास्थाश्रद्धा) अरुचिपूर्ण श्रद्धा है वह ( अनाकांक्षणा ) नि:कांक्षितत्व नामका गुण (स्मृता) माना गया है ।
टोकार्थ-अनास्था-श्रद्धा की व्याख्या दो प्रकार से की है। 'न विद्यते आस्था शाश्वतबुद्धिर्यस्यां सा अनास्था' जिसमें नित्यपने की बुद्धि नहीं है इस प्रकार अनास्था को श्रद्धा का विशेषण बनाया है । इस पक्ष में अनास्था और श्रद्धा इन दोनों पदों को समास रहित ग्रहण किया है । दूसरे पक्ष में 'न आस्था अनास्था तस्यां वा श्रद्धा अनास्था श्रद्धा अरुचिरित्यर्थः' अरुचि में अथवा अरुचि के द्वारा होने वाली श्रद्धा । पचेन्द्रिय विषय सम्बन्धी सुख कर्मों के आधीन हैं, विनाश से सहित हैं, इनका उदय मानसिक तथा शारीरिक दुःखों से मिला हुआ है तथा पाप का कारण है; अशुभ कर्मों का बन्ध कराने में निमित्त है ऐसे सुख में शाश्वत बुद्धि से रहित श्रद्धा करना वह सम्यग्दर्शन का निःकाक्षितत्व अंग कहलाता है ।।१२।।
विशेषार्थ-सर्वदर्शियों ने कर्म से परतन्त्र इन्द्रियजनित सुख में सुखपने की आस्था से रहित श्रद्धाभाव को सम्यक्त्व का अनाकांक्षा नामक गुण कहा है। जिसकी उत्पत्ति स्थिति वृद्धि आदि सभी पराधीन है-कर्मों पर निर्भर है वह अवश्य कर्मपरवश हुआ करता है । कर्म पुण्य-पाप के भेद से दो प्रकार हैं। संसारसुख पुण्यकर्म के आधीन है, पुण्यकर्म के उदय के बिना कोटि उपाय करने एवं पुरुषार्थ करने पर भी सुख की प्राप्ति नहीं होती है । सुख चार प्रकार का है-विषयसुख, वेदना का प्रतिकार, विपाक और मोक्ष । इनमें तीन प्रकार के सुख तो पराधीन हैं और एक मोक्षसुख स्वाधीन है जो कर्मों के क्षय से प्राप्त होता है, कर्म जनित इंद्रिय विषयसुख सदाकाल स्थिर नहीं रहते, तथा अपने इष्ट विषय के आधीन हैं, जब तक इष्ट विषयों का समागम है तब तक तो सुख का अनुभव होता है परन्तु इष्ट का समागम विनाशीक है। जिस प्रकार इन्द्र धनुष, बिजली का चमत्कार क्षणभंगुर है, उसी प्रकार शरीर की नीरोगता धन, स्त्री, पुत्र, आयु, आजीविका, इंद्रियादि अनेक प्रकार की पराधीतना से सहित हैं, अस्थिर हैं, तथा ये भोग सीमित काल तक ही भोगने में आते हैं। चिरस्थायी नहीं हैं, बीच-बीच में अनेक प्रकार के शारीरिक, मानसिक एवं आगन्तुक दुःख तथा इष्टवियोग अनिष्टसंयोगादि दुःख उपस्थित होते रहते हैं अत: अन्तसहित हैं। पाप के कारण हैं क्योंकि जीव इंद्रियजनित सुख में मग्न होकर अपने आत्मस्वरूप को भूलकर अत्यन्त घृणित पापारम्भ करने में प्रवृत होता है, अन्यायपूर्वक विषयसुख के साधन जुटाता है