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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ २३ ( अनादिमध्यान्तः ) अनादिमध्यान्त - आदि, मध्य तथा अन्त से रहित । ( सार्व:) सार्वसर्वहितकर्ता और (शास्ता ) शास्ता - हितोपदेशक (उपलास्यते ) कहा जाता है, ये सब आप्त के नाम हैं । टीकार्थ- 'परमेइन्द्रादीनांवन्द्येपदे आर्हन्त्येपदे तिष्ठति इति परमेष्ठी' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो इन्द्रादिक के द्वारा वन्दनीय परमपद - अर्हन्तपद में स्थित रहते हैं वे परमेष्ठी कहलाते हैं परमातिशयप्राप्तं ज्योतिर्ज्ञानं यस्यासौ परमज्योति' इन निरुक्ति के अनुसार निरावरण केवलज्ञान से सहित होने के कारण परमज्योति कहलाते हैं । 'विगतोरागो यस्य सः विरागः इस व्युत्पत्ति के अनुसार रागरूप भावकर्म के नष्ट हो जाने से विराग कहलाते हैं । 'विगतो विनष्टो मलः पापं यस्य यस्माद्वा स विमल:' इस निरुक्ति के अनुसार मूलप्रकृति तथा उत्तरप्रकृतिरूप द्रव्यकर्म के नष्ट हो जाने से विमल कहलाते हैं । 'कृतं कृत्यं येन स कृती' इस प्रकार जो समस्त हेय उपादेय तत्त्वों के विषय में विवेक सम्पन्न होने के कारण कृती कहलाते हैं । 'सर्व जानातीति सर्वज्ञ : ' जो समस्त पदार्थों को साक्षात् जानने वाले होने से सर्व आदि मध्यान्तःयस्य सोध्नादिमध्यान्त' इस प्रकार पूर्वोक्त स्वरूप वाले आप्त के प्रवाह की अपेक्षा अ‌ति-आटा और अन्न से रहित होने के कारण वे अनादिमध्यान्त कले जाते हैं।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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