Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन
११ .
--जिस प्रकार गजराज अपने पराक्रम से बंधनों का ७. पुष्कर विहग (पक्षी) छेदन कर अपनी वसति (विध्याटवी) में चला जाता है
विहग इव सव्वओ विप्पमुक्के । इसी प्रकार श्रमण भी प्रबल आत्मबल से कर्म बन्धनों को
-प्रश्न० सं०५ तोड़कर परमात्मधाम-शिवधाम को चला जाता है।
-श्रमण पक्षी के समान परिग्रह से सर्वथा मुक्त होता श्री पुष्कर मुनि भी अणगार धर्म की आराधना करते है। किन्तु पक्षी तो केवल द्रव्य परिग्रह से मुक्त होता है हुए कर्म बन्धनों को तोड़कर यद् गत्वा न निवर्तन्त, तत्धाम और श्रमण द्रव्य एवं भाव परिग्रह से अर्थात् बाह्यान्तर परमं मम-की प्राप्ति के प्रयत्नों में लगे हुए हैं। परिग्रह से सर्वथा मुक्त होता है। ५ पुष्कर-औषधी
श्री पुष्कर मुनि भी बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से सर्वथा (पुष्करमूल-कुष्ट रोग की परमौषधी)
मुक्त होने की साधना में संलग्न हैं। दुहट्टियाणं च औसहिबले ।
भारंड पक्खीव चरे ऽप्पमत्तो। -प्रश्न० सं० ५।
-उत्त० अ० ४, गा०६। -जिस प्रकार रोगग्रस्त व्यक्तियों को औषधी का सहारा -श्रमण भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त होकर होता है-इसी प्रकार कर्म रोगग्रस्त आत्माओं को वीतराग विचरे। वचनामृत रूप परमौषध का सहारा होता है।
श्री पुष्कर मुनि भी उक्त सर्वज्ञ सन्देशानुसार अप्रमत्त "आमोसहिपत्तेहि, खेलोसहिपत्तेहि, जल्लोसहि दशा की आराधना में अनुरक्त हैं। पत्तेहि, विप्पोसहि पत्तेहि, सम्वोसहि पत्तेहि...
भोगे भोच्चा बमित्ता य, लहभूय विहारिणो।
-प्रश्न० सं०५ आमोयमाणा गच्छन्ति, दिया कामकमा इव ।। -अहिंसा के परमोपासक श्रमण को आमशीषधि
-उत्त० अ०१४, गा० ४४ आदि लब्धियां प्राप्त हो जाती हैं।
-भोगों को भोगकर या त्यागकर जो लधुभूत बिहारी श्री पुष्कर मुनि इनमें से कौन-सी लब्धि सम्पन्न है - प्रसन्नतापूर्वक प्रव्रजित होते हैं और वे पक्षी या पवन के यह तो विशेषज्ञ ही बता सकते हैं पर उन्हें किसी एक समान अप्रतिबद्ध विहार करते हैं। प्रकार की लब्धि अवश्य प्राप्त है।
श्री पुष्कर मुनि भी चार प्रकार के प्रतिबन्धों से मुक्त __मैंने स्वयं देखा है-अपरान्ह में उपस्थित उपासक होकर अप्रतिबन्ध विहार के लिए सदैव प्रयत्नशील हैं। वृन्द को जब वे मंगल पाठ सुनाते हैं तो श्रद्धालु श्रोताओं ८. पुष्कर-तीर्थ (तीर्थराज पुष्कर) के कायिक, वाचिक एवं मानसिक सन्ताप प्रायः समाप्त हो वैदिक मान्यतानुसार भारत में पुष्कर तीर्थराज हैं। जाते हैं।
इस तीर्थराज की यात्रा करने पर अन्य तीर्थयात्राएँ ६ पुष्कर-द्वीप (पुष्करवरद्वीप) सफल होती हैं-यह पुष्कर तीर्थराज की महिमा है, फिर दीवो ताणं सरणगई पइट्ठा।
भी यह स्थावर तीर्थ है अर्थात् एक स्थान पर स्थिर रहने -जिस प्रकार द्वीप समुद्र में आश्रय स्थान होता है वाला तीर्थ है किन्तु श्री पुष्कर मुनि जैनागमों के अनुसार इसी प्रकार अहिंसा महा मोहसागर में आश्रय स्थान है। जंगमतीर्थ हैं। वर्तमान में वे वर्धमान श्रमण संघ में
जरा-मरण वेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित हैं इसलिए तीर्थराज अर्थात् धम्मो दीवो पइट्टा य, गई सरणमुत्तमं ॥ जंगम तीर्थराज की श्रेणी में समाविष्ट हैं।
-उत्त० अ० २३, गा०६८। आपके प्रवचन-पयोधि में जो अनवरत अवगाहन करते -जिस प्रकार प्रबल प्रवाह में बहते हुए प्राणियों हैं वे कर्ममल से मुक्त हो सकते हैं। को द्वीप का ही आधार (सहायक) होता है इसीप्रकार है. पुष्कर-उरग (सर्प) जरा एवं मरण के प्रवाह में पड़े हुए प्राणियों के लिए एक कय पर-निलए जहा चेव उरए । धर्म ही उत्तम आधार उत्तम शरण एवं उत्तम गति हो
-प्रश्न० सं०५ सकती है।
-श्रमण सर्प के समान पर-कृत निलय में ही ठहरते हैं । श्री पुष्कर मुनि भी अहिंसा धर्म के आराधक हैं इस- श्री पुष्कर मुनि भी श्रमणचर्या के अनुसार परकृत लिए भवसागर में भवभ्रमण करने वाले भव्य जीवों के लिए उपाश्रयादि में ही विश्रान्ति लेते हैं। द्वीप के समान आधार हैं।
अही चेव एगदिट्ठी .....। -प्रश्न० सं०५ इस भूतल पर पुष्कर द्वीप सबसे महान् है और
अहीवेगंत दिट्ठीए...। श्रमणसंघ में श्री पुष्कर मुनि भी विशाल व्यक्तित्व वाले
-उत्त० अ० २६, गा० ३६ । श्रमण हैं।
-श्रमण सर्प के समान एक दृष्टि-एकाग्रदृष्टि
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