Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन
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है । जब तक जिज्ञासा नहीं होती तब तक विकास नहीं हो छोड़ा । वे जिसे ठीक समझते हैं उसे करने में कभी भी सकता। जब जिज्ञासा का बीज अंकुरित होता है तब संकोच नहीं करते। विकास से द्वार खुल जाते हैं।
तीसरी उनके जीवन की विशेषता है कि वे जिम्मेदार पुष्कर मुनि जी में यों अनेकों विशेषताएँ हैं व्यक्ति हैं। जिम्मेदारी को प्राणप्रण से निभाना वे जानते पर मेरी दृष्टि से उनमें तीन मुख्य विशेषताएँ हैं। सर्व- हैं। प्रथम विशेषता है कि वे बहुत ही परिश्रमी हैं। उन्होंने पुष्कर मुनिजी की और हमारी परम्परा के आद्य अपने ही परिश्रम से अपना विकास किया है। स्वयं ने भी नायक आचार्य प्रवर जीवराजजी महाराज थे जिन्होंने सर्वअध्ययन की दृष्टि से प्रगति की है और अपने सुयोग्य प्रथम (वि० सं० १६६६ में पीपाड़) राजस्थान में क्रियोद्धार शिष्य-शिष्याओं को पढ़ाकर जैन समाज के गौरव में चार किया था, अतः उनके साथ आज से ही नहीं, अपितु परम्परा चाँद लगाये हैं। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने और उनके की दृष्टि से भी हमारा बहुत ही पुराना सम्बन्ध रहा है शिष्यों ने जो कीर्तिमान स्थापित किया है वह अन्य श्रमण- और आज भी है । श्रमणियों के लिए भी प्रेरणादायी है। एक व्यक्ति परिश्रम उनके ओजस्वी व्यक्तित्व और तेजस्वी कृतित्व से से कितना आगे बढ़ सकता है यह उनके जीवन से सीखा प्रभावित होकर श्रद्धालुगण उनकी दीक्षा-जयन्ती के सुनहरे जा सकता है।
अबसर पर एक विराट्काय अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर उनके जीवन की दूसरी बड़ी विशेषता है कि वे बहुत रहे हैं यह परम आल्हाद की बात है गुणीजनों का अभिबड़े साहसी हैं । वे किसी भी विषय पर गम्भीर चिन्तन के नन्दन करना हमारी उज्ज्वल परम्परा रही है, उसी परपश्चात् निर्णय लेते हैं और वे वीर सैनिकों की भाँति फिर म्परा को दुहराया जा रहा है। मेरा हार्दिक आशीर्वाद है आगे बढ़ते रहते हैं। भय से कायर सैनिक की तरह पीछे कि उपाध्याय पुष्कर मुनिजी पूर्ण स्वस्थ रहकर ज्ञान-दर्शनहटना उन्होंने सीखा नहीं है। कई बार उनके जीवन में चारित्र की अभिवृद्धि करते हुए जैनधर्म की विजय वैजऐसे विकट प्रसंग आये हैं पर कभी भी उन्होंने साहस नहीं यन्ती फहराते रहें।
पश्चात् निर्णयात हैं। भय से कायर सार उनके जीवन में
स्नेह व सौजन्य की साक्षात्मूर्ति
0उपप्रवर्तक स्वामी जी श्री ब्रजलाल जी महाराज
थे। उस समय
उपाध्याय पुष्कर मुनिजी स्थानकवासी परम्परा के महास्थविर ताराचन्दजी महाराज का और हमारा जाने और पहचाने हुए सन्त श्रेष्ठ हैं । उनका जीवन निर्मल, विहार क्षेत्र प्रायः राजस्थान रहा और परम्परा से भी विचार उदार और प्रकृति सरल व सरस है । मैं उन्हें तब हमारा अत्यन्त निकट का मधुर सम्बन्ध रहा, जिसके कारण से जानता हूँ जब वे मरुधरा के तेजस्वी सन्त श्रद्ध य तारा- अनेकों बार साथ में रहने का अवसर मिला और साथ में चन्दजी महाराज के सन्निकट भाव दीक्षित थे। उस समय वर्षावास करने का भी सौभाग्य मिला। इस लम्बे परिचय उनकी उम्र तेरह-चौदह वर्ष की थी। ताराचन्द जी में मैंने पुष्कर मुनिजी को बहुत ही सन्निकटता से देखा है, महाराज के साथ हमारा वर्षावास भी उस वर्ष पाली में परखा है, "जहा अन्तो तहा बाहि" के अनुसार जैसे वे था। वे मेरे पास वन्दना हेतु आते थे और मैं यदा-कदा अन्दर हैं वैसे बाहर हैं। उनके जीवन में बहुरूपियापन उनसे स्तोक साहित्य के सम्बन्ध में प्रश्न करता था और वे नहीं है। वे स्नेह-सौजन्य की साक्षात् मूर्ति हैं। उनके जैसे उसका सचोट उत्तर देते थे। उनके ऊर्वर मस्तिष्क को प्रतिभा सम्पन्न सन्तों से श्रमण संघ का गौरव है। मेरा देखकर मुझे उस समय में ही यह अनुभव हो गया था कि हार्दिक आशीर्वाद है कि पुष्कर मुनिजी चिरंजीव बनें और यह बालक भविष्य में एक तेजस्वी सन्त बनेगा।
श्रमण संघ की गरिमा को निरन्तर बढ़ाते रहें।
भने पुष्कर मुनिजी का तहा बाहि" के अवहरूपियापन
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