Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्रमण भगवान महावीर ने मानव जीवन का गम्भीर विश्लेषण करते हुए मानव के चार प्रकार बताये हैं(१) श्रुतसम्पन्न ( २ ) शीलसम्पन्न (३) श्रुत व शील सम्पन्न (४) श्रुत व शील रहित । वस्तुतः वही महान् है जो श्रुत और शील सम्पन्न होता है । केवल श्रुत सम्पन्न व्यक्ति उस पंगु के समान है, जिसके नेत्र हैं किन्तु पैर नहीं और शीलसम्पन्न उस अन्धे के समान है जो चल सकता है, पर देख नहीं सकता । श्रुत और शील रहित व्यक्ति अन्धा भी है पंगु भी है श्रेष्ठतम व्यक्ति वही है जिसमें श्रुत भी है शील भी है । उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी श्रुत सम्पन्न भी हैं और शील सम्पन्न भी हैं। इसी कारण उनके जीवन की महत्ता है ।
पुष्कर मुनिजी ने जहाँ साहित्य का गहरा अध्ययन किया है वहाँ उनके जीवन के कण-कण में आगम की वे बातें जो श्रमण के जीवन के लिए आवश्यक हैं स्पष्ट रूप से निहारी जा सकती हैं। उनका जीवन, ज्ञान और विचार का सुन्दर संगम है। जैसे केले के पात में से पात निकलते हैं वैसे ही उनकी बात में से बात निकलती जायगी । उनके विचारों में जहाँ गहराई है वहाँ नरमाई भी है । आपको ऐसा प्रतीत होगा कि हम साक्षात् सरस्वती पुत्र से ही बात कर रहे हैं। ज्ञान के वे महान् भण्डार हैं, किन्तु उतने ही ज्ञान के पिपासु भी हैं। मैं सन् १९४६ में और १९७१ में उनसे क्रमश: लिमडी, (सौराष्ट्र) में और अहमदाबाद में मिला। मैंने अनुभव किया कि वे अपने सम्प्रदाय के प्रमुख सन्त थे और दूसरी बात वे श्रमण संघ
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प्रथम खण्ड : श्रद्धाचंन
शरद् के चाँद की तरह चमकते रहें
→ आचार्यप्रवर श्री रूपचन्द जी महाराज (सिमडी सम्प्रदाय)
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के वरिष्ठ सन्त थे, तथापि उनमें नम्रता, सरलता तथा स्नेह-सौहार्द और जिज्ञासु वृत्ति को देखकर मेरा हृदय गद्गद हो गया । जिज्ञासा वृत्ति ही व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारती है । मुझे स्मरण है कि आचार्य प्रवर पूज्य श्री गुलाबचन्द जी महाराज से उन्होंने अनेक जिज्ञासाएँ प्रस्तुत कीं, अनेक आगमिक विषयों पर उनसे चर्चाएँ हुईं। उन सभी चर्चाओं में मैंने उनका विनीत रूप देखा । सन् १९४६ में जब सौराष्ट्र में तेरापन्थी समुदाय के सन्तों ने दया दान के विरुद्ध प्रचार किया और भगवान महावीर ने भूल की आदि आगमीय मान्यताओं के विरुद्ध प्रचार को रोकने के लिए और शुद्ध जैन दृष्टि का परिज्ञान कराने हेतु पूज्य श्री की प्रेरणा से सौराष्ट्र का शिष्ट मण्डल आपकी सेवा में पहुँचा और आपने सौराष्ट्र में आकर जो अपनी विद्वत्ता का परिचय दिया वह अद्भुत था, अनूठा था, जिससे उनका जोर समाप्त हो गया ।
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मुझे यह जानकर हार्दिक आल्हाद हुआ कि आपका अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है । आपका अभिनन्दन एक प्रचलित परम्परा का पालन मात्र नहीं है किन्तु चिरस्मरणीय निर्माण की गरिमा से आप अभिनन्दनीय हैं । जनमानस जिस व्यक्ति के गौरवपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रभावित होता है, उसी का अभिनन्दन किया जाता है ।
श्री पुष्कर मुनिजी दिनानुदिन गुलाब के फूल की तरह महकते रहें और शरद् ऋतु के चाँद की तरह चमकते रहें, यही मेरा हार्दिक आशीर्वाद है ।
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