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कोपी दौपार्णव के सम्पादक ने की हैं जिसे उसमें तो जिनशसाझे के 'गों की क्रम संख्या मिले ही की से यह उतना ही नहीं खुद के नियमानुसार भी शुगों की क्रम संख्या बराबर नहीं मिलती।
बड़े हर्ष का विषय है कि भारतीय प्राचीन संस्कृतिक साहित्यका भारतीय भाषा में प्रथम घार ही हिन्दी साहित्य की पूर्तिरूप प्रकाशित हो रहा है । मैंने कई वर्ष तक इस विषय के अनेक ग्रंथों का मनन पूर्वक अध्ययन करके तथा शिस्पीवर्ग के सहयोग से प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करके, एवं प्राचीन देवालों और ईमारतों का प्रबलोकन करके इस अंग को बयाणे रूप में आप सज्जनों के सामने उपस्थित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
इस ग्रंभ में जो विषय कम मालुम होता था, उसको दूसरे ग्रंयों से लेकर या स्थान रखा गया है मौर जिसके अनुवाद में शंकास्पद मालुम होता था, इसकी स्पष्टता करने के लिये दूसरे ग्रंथों का प्रभागा मी दिया गया है। हर इस रिगा काय करने वाले अच्छी तरह समझ सके इस पर पूर्ण ध्यान रखा मया है। तथा पारिभाषिक शब्दों का मर्थ हिन्दी भाषा में पूर्णरूप से प्राप्त नहीं होने से मूलभाया ( संस्कृत) में ही रखा गया है। जिसे सार्वदेशीय अध्ययन करनेवाले को अनुकूलता हो सकेको । भाशा करता हूं कि इस विषय का अध्ययन करके कोई विषय की भूल मालूम होवे तो सूचित करने की कृपा करेंगे।
प्रारंभिक अभ्यास के समय बीस वर्ष पहले परमजैन चंद्रांगज उकुर 'फे विरचित विस्कुसारपयर' प्रति वास्तुसार प्रकरण नामक का प्राकृत शिल्ल पंथ को अनुवाद पूर्वक मैंने अपनाया था, उसमें कई एक जगह मे मंडोवर मादि की भूल दृष्टिगोचर होती है, उसको इस ग्रंथ से सुधार करके पढ़ने की कृपा करें।
प्रयाग परिश्रम करके इस ग्रंप की विस्तृत भूमिका लिखने की कृपा की है, उन श्रीमान् सुप्रसिद्ध विद्वान् हार बासुदेवशरणजी अग्रवाल 'प्रध्यस कला और वास्तु विभाग, काशी विश्वविद्यालय' का धन्यबाद पूर्वक भाभार मानता हूं । एवं इसके मनुवाद की कितनेक भाषा दोषों को सुधार करके सुम्बर श्राप काम कर देने वाले प्रबंता प्रिंटर्स के अध्यक्ष महोदय का भी प्राभार मानना भूला नहीं जाता।
सज्जनों से प्रार्थना है कि--मेरी मातृभाषा गुजराती होने से अनुबाद में भाषादोष अवश्य रहा । होगा, उसको क्षमाप्रदान करते हुए सुधार करके पढ़े ऐसी विनम्र प्रार्थमा है । इति शुभम् ।
फागुण शुकला ५ गुरुवार सं० २०१६ ।
जयपुर सिटी ( राजस्थान)
भगवानवास जैन