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आठवां अध्याय साधारण नामका है। उसमें वास्तुदोष, दिङ्मूढ दोष, जीवास्तु, महादोष, भिन्नदोष, अंगहीनदोष, आश्रम, मठ, प्रतिष्ठाविधि, प्रतिष्ठा मंडप, यज्ञकुण्ड, मंडवप्रतिष्ठा प्रासाद देवन्यास, जिनदेवप्रतिष्ठा, जलाशयप्रतिष्ठा, वास्तुपुरुष का स्वरूप पर ग्रंथसमासि मंगल आदिका वर्णन है ।
परिशिष्ट नं० १ में केसरी प्रावि पवीस प्रासादों का सविस्तर वर्णन है । उनकी विभक्तियों की प्रासाद संख्या में शास्त्रीय मतांतर है। जैसे- 'समरांगण सूत्रधार' में प्रकारहवीं विभक्ति का एक भी प्रसाद नहीं है । एवं शिल्पशास्त्री नर्मदाशंकर सम्पादित शिल्परत्नाकर' में बीसवीं विभक्ति का एक भी प्रासाद नहीं हैं।
शिल्परत्नाकर में केसरी जातिका दूसरा सर्वतोभद्र प्रसाद नव गो वाला है, उसके चार कोने पर मौर पर भद्र के ऊपर एक एक श्रृंग बढ़ाया है, यह शास्त्रीय नहीं है, क्योंकि संपादक ने इसमें मनः atra परिवर्तन कर दिया है। शास्त्र में तीन कोने के ऊपर चढ़ाने का धौर भइ के ऊपर भृग नहीं बढ़ाने का लिखा है। क्षीरादि ग्रंथ में साफ लिखा है कि कर्णे श्रयं कार्यं भद्रे मं विजयेत् ।" इस प्रकार सोमपुरा भंगाराम विश्वनाथ प्रकाशित 'कैसरादि प्रासादमंथन' के पृष्ठ २५ लोक १० में भी लिखा है । मगर शिल्परत्नाकर के सम्पादक ने इस श्लोक का परिवर्तन करके कर्णे व तपा कार्यं भद्रे तथैव च । ऐसा लिखा है । इस प्रकार प्राचीन वास्तुशिल्पा परिवर्तन करना विद्वानोंको के लिये प्रनुचित माना जाता है । इसका परिणाम यह हुआ कि दीपाव के सम्पादक ने भी सर्वतोभद्र प्रासाद के रंगों का क्रम रक्खा, देखिये पृष्ठ नं० ३२१ में सर्वतोभद्र प्रासाद के शिखर का रेखाचित्र |
परिशिष्ट नं २ में जिप्रासादों का सविस्तृत वर्णन है । इन प्रासादों के ऊपर श्रीवत्स श्रृंगों के बदले कैसी श्रादिशों का क्रम चढ़ाने का लिखा है । क्रमशब्द यहां भूगों का समूहवाचक माना जाता है । बहला क्रम पनि मों का दूसरा कम तब स्गों का तीसरा क्रम तेरह व गोका, पौषा कर सह गों का और पांचवां क्रम इक्कीसगों का समूह है। प्रर्थात् केसरी आदि प्रासादों की संख्या को क्रम को संज्ञा दी है।
शास्त्रकार जितना न्यूनाधिक कम बढ़ाने का मिलते हैं, वह प्राधुनिक शिल्पी नीचे की पंक्ति में एकही संख्वा के क्रम चढ़ाते हैं। जैसे कि किसी प्रासाद के कोनेके ऊपर चार क्रम प्रति के ऊपर तीन क्रम, उपरभ के ऊपर दो क्रम बढ़ाने का लिखा है। वहां माधुनिक शिल्पी नीचे की प्रथम पंक्ति में सबके ऊपर चौथा क्रम बढ़ाते हैं। उसके ऊपर की पंक्ति में सबके ऊपर तीसरा क्रम चढ़ाते हैं । यह नियम प्रशास्त्रीय है। इस प्रकार प्राचीन देवालयों में बढ़ाये हुए नहीं है। शास्त्रीय नियम ऐसा है कि जिस प्रंग के ऊपर जितना क्रम बढ़ाने का लिखा है, वहां सब जगह प्रथम क्रम से ही गिन करके बढ़ायें पर्या कोने के ऊपर चार क्रम बढाने का है वहां नी की प्रथम पंक्ति में बीषा, उसके ऊपर तीसरा, उसके ऊपर दूसरा और उसके ऊपर पहला क्रम बढ़ाया जाता है। प्रतिक के ऊपर तीन कम चढाने का fear है, वहां मौजे की प्रथम पंक्ति में तीसरा, उसके ऊपर दूसरा और उसके ऊपर प्रथम, उपरण के ऊपर दो कम चढाने का fear हो वहां पहला कम दूसरा उसके ऊपर पहला क्रम बढाना चाहिये । देखिये अपराजित पृच्छासून के पुष्पकादि प्रासादों की जाति । ऐसा शास्त्रीय नियम के अनुसार नहीं करने से शिल्परत्नाकर के अट्टम रल में fararara का स्वरूप लिखा है उसमें गो की क्रम संख्या बराबर नहीं मिलती है, उसकी कोपी टु