Book Title: Prasad Mandan
Author(s): Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 10
________________ देवों के पदस्थामा संबंध में शास्त्रीय प्रनेक मत मतान्तर हैं। इन हरएक का मारांश यह है कि 'दीवार से दूर रखकर मूलि को स्थापित करना चाहिये । दीवार से बीपका करके किसी भी देश की मूस्ति स्थापित नहीं करना चाहिये । इस विषय में मह. ग्रंथकार मतमतान्तर को छोड़ करके गर्भग्रह के ऊपर के पाट के मायके भाग में देवों को स्थापित करता लिखते हैं, यह वास्तविक है। रेखा शिखर की ऊंचाई को गोलाई का निश्चय करने के लिये शिखर के नीचे के पायों से ऊपर के स्कंध वफ को लकीरे खींची जाती है, उसको रेखा कहते हैं । रेखायों से शिखर निर्दोष मनता है । ऐसा शिल्पीवर्ग में मान्यता है । मगर इस रेखा संबंधी रहस्यमय ज्ञान लुस प्रायः हो गया है। जिसे इसका रहस्य मुझे मालूम नहीं हो सका, जोकि अनुबाद में पृष्ठ नं ७७ में एक रेखा चित्र दिया है, जिससे शिल्पिगया इस पर विचार करके रेखा की वास्तविकता का निर्णय करेंगे तो बास्तु शास्त्र के इस विषय का प्रचार हो सकेगा। ध्वजादंड---- वास्तु शिल्पशास्त्र का विशेष अध्ययन न होने से शिल्पिपरा बजादंड रखने का स्थान विस्मृत होगये हैं, जिसे ये देवालय का निर्माण करते समय ध्वज्ञादंड को मामलसार में स्थापन करते हैं, यह प्रामाणिक नहीं है। शास्त्र में शिखर की ऊंचाई का छह भाग करके ऊपर के छ? भाग का फिर चार भाग करके नीचे का एक भाग छोड़ देना, उसके ऊपर का तीसरे भाग में यजादंड रखने का कलामा बनाना लिया है। देखो पेज नं ६, एवं ध्वजादंड को मजबूत रखने के लिये उसके साथ एक दंडिका भी बबंध करके रखी जाती है। यह प्रथा तो प्रायः विलकुल सुस होगई है। शास्त्र में जलावार का स्थान लिखा है, परन्तु शिल्पी रजाचार का अर्थ यजा को धारण करने बासा 'ध्वजपुरुष' ऐसा करते हैं, जिसे बजादड रखने के स्थान पर ध्वजपुरुष की प्राकृति रखते हैं। और शिल्परत्नाकर पेज नं० १८४ श्लोक ५४ का गुजराती अनुबाद में बजाधर अर्शन वमपुरुष करो' लिखा है, उसका प्रमाण देते हैं । उन शिल्पियों को समझना चाहिये कि इवाधार का अर्थ ध्वजपुरुष नहीं, लेकिन ध्वजादंड रखने का कलाका है। दीपार्णव ध में नवीन बने हुए देवालयों के चित्र दिये गये हैं, उनके शिखरों के मामलसारों में ध्वजादंड रखा हुआ मालूम होता है, उनको देखकर अपने ये प्रामाणिक मान ले तो दीयारण्य के पेज ११५ में श्लोक ४६, ५० का मनुवाद पेज २० ११६ में लिखा है कि....."जो स्कंधना मूलमां ध्वजदंड प्रविष्ट थाय तो स्कवेष बारगयो, स्कंधवेषची स्वामी मने शिल्पीनो नाश पाय छे।" यह शास्त्रीय कयान झूठा हो जाता है । शास्त्रीय कपन सत्य मानने के लिये प्रासादमंडन के पेत्र नं० ६० में दिये गये ध्वजदंड में रेखा चित्र देखें, इस प्रकार ध्वजवंद रखना प्रामाणिक है । दीपा के पृष्ठ नं. १२६ की टीप्पणी में श्रीरार्णव का एक श्लोक का प्रमाण देकर लिखा है कि-'समपर्व ने एको कांगरणी माला बजादेव शक्तिदेवीना ने महादेवनामंदिरोमा करावी। एकी केकी रेउ प्रकारमा ध्वजावंडो भवनने बिये तो शुभ ज छे ।' इस विषय में विहिस्यों को विचार करना चाहिये । यह लोक क्षीराव में नहीं है, किसी अन्य ग्रंथ का होगा या अनुवादक ने मनः कल्पित बनाकर

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