Book Title: Prasad Mandan
Author(s): Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 9
________________ उदुम्बर (देहली)---- देवालय के द्वार की देहली मोर स्तंभ को कुम्भीरों की ऊंचाई मंडोबर के मुम्भर घर को अमाई के बराबर करना लिखा है। परन्तु कभी बड़े प्रासादों में कुम्मा की ऊंचाई पक्षिक होती है, तो देहली की ऊँचाई भी अधिक होती है । ऐसे समय में देहली को नीचा उतारना शास्त्र में लिखा है। इस विषय में शिल्पियो में मतभेद चल रहा है । कोई शिल्पी कहते हैं कि..... 'देहली नीवी की नाप तो उसके हाथ स्तंभ की कुम्भियां भी देहली के बराबर नीची की जाय' और कोई शिल्पी देहली नोबी करते हैं, परन्तु स्वभ की कुम्भियां नीची नहीं करते । इस मतभेद में जो शिल्पी देहली के साथ कुम्भिया भी नीषी करता है, उसका मत शास्त्र की दृष्टि से प्रामाणिक मालूम नहीं होता है । कारण अपराजित पृच्छा सूत्र १२६ श्लोक में सो कुरभीनों से देहली लीची उतारता लिखते हैं, तो कुम्भीनों नीचे कैसे उतरे ? से क्षीराव में तो स्पष्ट लिखा है कि-"उदुम्बरे हते (क्षते) कुम्भी स्तम्भ तु पूर्ववत् भवेत् ।" कभी दहली नीची किया जाय तो भी स्तंभ और उसकी कुम्भिया पहले के शास्त्रीय नाप के बराबर रखना चाहिये । इससे स्पष्ट मालूम होता है कि जो शिला चेहली के साथ कुम्भोनों नीची करमा मानते हैं....यह प्रामाणिक नहीं है। . BAR द्वार की शाखा के विषय में भी शिल्पीनों में मतभेद मालूम होता है। स्तंभ शाखा के दोनों तरफ..... एक एक कोणी बनाई जाती है, उसको शिल्परत्नाकर के सम्पादक शाखा मामते नहीं है और बीमार्णव के सम्पादक गाखा मानते हैं । देवो दीपाद पेज नं०६१ में द्वारशाखा का रेखा चित्र है। उसमें संभ के दोनों तरफ की कोणिवों को शाख मान करके त्रिशाखा द्वार को पंच शाखा द्वार लिखा है, एवं पेज नं० ३६६ और ३६६ के बीच में डारशाखा का लोकपा है, यह चित्र शिल्परत्नाकर का होने से बीच में विशाखा द्वार रूपा है और नीचे उसके खंडन रूप से पंथ शाखा धार लिखा है। इसीसे स्पष्ट मालूम होता है कि स्तंभ शाखा की कोरिणयों को दीपागन के सम्पादक शाखा मानते हैं, जिसे उसके मत से नवशाखा बाला र में दो स्तंभ शाखा होने से तेरह शाखा वाला द्वार माना जाय तो यह प्रशास्त्रीय हो जाता है। क्योंकि शास्त्रकार स्तंभ शाखा के दोनों तरफ कोग्गियां बनाना लिखते हैं, परन्तु जसको शाखा नहीं मानते। इसलिये स्तंभ की दोनों तरफ की फोगियों को शाखा मानने वाले शिल्पीनों का मत प्रशास्त्रीय होने से प्रामाणिक नहीं माना जाय। चतुर्थ अध्ययन में मूर्ति और सिंहासन का नाप, गर्भगृह का नाप, देवों की दृष्टि, देवों का पद स्थान, उस गो का कम, रेखा विधार, शिखर विधान, मामलसार, कलश, शुकनाशा, कोली मंडप का विधान, सुबर्णपुरुष की रचना, बजादंड का मार और उसका स्थान फ्रादिका वर्णन है। देवदृष्टि स्थान-- देवों की दृष्टि द्वार के किस विभाग में रखा जाय, इस विषय में शिल्पियों में मतभेद है। कितनेक शिल्पी शास्त्र में कहे हुए एक भाग में दृष्टि नहीं रखते, परन्तु कहा मा माग और उसके ऊपर का माल, इन दोनों भाग की संधी में प्रांख की कीकी रखते हैं, जिसे उनके हिसान से एक भाग में कृष्टि रखने का संबंध नहीं मिलता। इसलिये शास्त्र के हिसाब में हष्टि स्पान में होने से उसका मन प्रामाणिक नहीं माना जाता।

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