Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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सम्पादन विषयक वक्तव्य
ने प्रूक देखने में या लिखने आदि में निःसङ्कोच सहायता की है। अतएव में इन सघका अन्तःकरण से आभारी हूँ। मैं भिक्षुवर राहुल सांकृत्यायन का भी कृतज्ञ हूँ जिन्होंने प्रमाणवार्तिकादि अनेक अप्रकाशित ग्रन्थों का उपयोग वड़ों उदारता से करने दिया ।
इस ग्रन्थमाला के प्राणप्रतिष्ठापक, विद्वमित्र और सहोदरकल्प बा० श्रीबहादुर सिंहजी सिंधी के उदार विद्यानुराग व साहित्य प्रेम का मैं विशेष कृतज्ञ हूँ जिसके कारण, इतः पूर्व प्रकाशित जैनतर्कभाषा और प्रस्तुत ग्रन्थ का सिंघी जैनमन्थमाला द्वारा प्रकाशन हो रहा है। ई० सन् १९३७ जून की पहली तारीख को आबू पर्वत पर प्रसंगोचित वार्तालाप होते समय, मैंने श्रीमान् सिंघजी से यों ही स्वाभाविक भाव से कह दिया था कि यह प्रमाणमीमांसा का संपादन, शायद मेरे जीवन का एक विशिष्ट अन्तिम कार्य हो, क्योंकि शरीरशक्ति दिन प्रतिदिन अधिकाधिक क्षीण होती जा रही है और अब ऐसा गंभीर मानसिक श्रम उठाने जैसी वह क्षम नहीं है। मुझे तब इसकी तो कोई कल्पना ही नहीं थी कि अगले वर्ष यानि १९३८ के जून में, ग्रन्थ के प्रकाशित होने के पूर्व ही, इस शरीर पर क्या किया होनेवाली है। खैर, अभी तो मैं उस घात से पार हो गया हूँ और मेरे साहित्य संस्कारों तथा विद्योपासना का स्रोत भागे जारी रहा तो वक्त बाबूजी की सौहार्दपूर्ण प्रेरणा और सनिष्ठा के कारण, मुख्यतया इस स्रोत के प्रवाह का सिंधी जैन ग्रन्थमाला के बाँध में संचित होना और फिर उसके द्वारा इतस्ततः प्रसारित होना स्वाभाविक ही है । अतएव यहाँ पर उनके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करना आवश्यक और क्रमप्राप्त है।
हिंदू विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्याविभाग के भूतपूर्व प्रिंसिपल तथा इस समय हिंदूविश्वविद्यालय के संस्कृत शिक्षण के डाइरेक्टर महामहोपाध्याय पं० श्री प्रमथनाथ तर्कभूषण को मैंने छपी हुई सारी प्रमाणमीमांसा १९३७ के अंतिम दिनों में अवलोकन के लिए दी थी । वे प्रखर दार्शनिक होने के अलावा ऐतिहासिक दृष्टि भी रखते हैं। उन्होंने म प्रन्थ तथा सारे भाषा-टिपणों को बड़ी एकाग्रता व चिस्पी से पढ़ा। जैसा मैं चाहता था तदनुसार उन्हें कोई विस्तृत दार्शनिक निबन्ध या ऐतिहासिक समालोचना लिखने का अवकाश नहीं मिला फिर भी उन्होंने जो कुछ लिखा वह मुझे गत वर्ष अप्रिल में ही मिल गया था। यहाँ मैं उसे इस वय के अंत में ज्यों का त्यों कृतज्ञता के साथ प्रसिद्ध करता हूँ। उन्होंने जिस सौहार्द और विधानुरागपूर्वक भाषा टिप्पण गत कुछ स्थानों पर मुझे सूचनाएँ दीं और स्पष्टता करने के वास्ते ध्यान खींचा; एतदर्थ तो मैं उनका विशेष कृतज्ञ हूँ ।
६. प्रत्याशा
चिरकाल से मन में निहित और पोषित सङ्कल्प का मूर्तरूप में सुखप्रसव, दो उत्साहशील तरुण मनस्वी सखाओं के सहकार से, सहृदय सृष्टि के समक्ष आज उपस्थित करता हूँ । मैं इसके बदले में सहृदयों से इतनी ही आशा रखता हूँ कि वे इसे योग्य तथा उपयोगी समझें सो अपना लें। इसके गुण दोषों को अपना ही समझें और इसी बुद्धि से आगे उनका यथायोग्य विकास और परिमार्जन करें। अगर इस कृति के द्वारा साहित्य के किसी अंश की पूर्वि और जिज्ञासुओं की कुछ ज्ञानतृप्ति हुई तो मैं अपनी चालीस वर्ष की विपनाको फलent मा । साथ ही सिंघी जैन ग्रन्थमाला भो फलेमहि सिद्ध होगी ।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
बा० ५.३.३६
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सुखलाल