Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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सम्पादन विषयक वक्तव्य स्रोतों का वर्गीकरण पूर्वक तुलनात्मक संक्षिप्त वर्णन करके उसमें जैन विचारप्रवाह का स्थान दिखलाया है तथा जैन साहित्य व विचार प्रवाह के युगानुरूप विकास का दिग्दर्शन भी कराया है। प्रमाणमीमांसा की विशिष्टता बतलाने के साथ साथ अनेकान्तवाद की मात्मा को भी चित्रित करने का अल्प प्रयास किया है। प्रस्तावना के 'अन्धकार-परिचय' में हेमचन्द्र के आन्तरबाह्य व्यक्तित्व का ऐतिहासिक दृष्टि से वर्णन है।
४. कार्य-विभाग __ प्रस्तुत संस्करण से सम्बन्ध रखने वाले काम अनेक थे। उन सब में एक याक्थता बनी रहे, पुनरुक्ति न हो और यथासंभय शीघ्रता भी हो, इस दृष्टि से उन कामों का विभाग हम लोगों ने पहले से ही स्थिर कर लिया था, जिसका सूचन घारूरी है। पाठशुद्धिपूर्वक पाठपाठान्तरों के स्थान निधन भरने का, भागादिया नभा प्रस्तावना लिने का काम मेरे जिम्मे रहा । प्रन्यात अवतरणों के मूल स्थानों को हूँढ निकालने का तथा तुलना में और भाषाटिपण लिखने में उपयोगी हो सके, ऐसे स्थलों को जैन-जेनेतर अन्थों में से संचित करने का काम पं० महेन्द्रकुमारजी के जिम्मे रहा। पाठान्तर लेने और सारी प्रेस कॉपी को व्यवस्थित बनाने से लेकर छप जाने तक का प्रेस प्रूफ, गेट-अप आदि सभी कामों का, तथा सभी परिशिष्ट बनाने का भार पं० दलसुख भाई के ऊपर रहा। फिर भी सभी एक दूसरे के कार्य में आवश्यकतानुसार सहायक तो रहे ही ! मैं अपने विषय में इतना और भी स्पष्ट कर देना उचित सम. ससा हूँ कि लिखवाते समय मुझे मेरे दोनों सहकारी मित्रों ने अनेक विषयों में केवल परामर्श ही नहीं दिया, बल्कि मेरो दिखायट में रही हुई त्रुटि या भ्रांति का उन्होंने संशोधन भी कर दिया। सचमुच में इन दोनों सहदय व उदारता मित्रों के कारण ही एक प्रकार के विशिष्ट चिंतन में बेफिक निमग्न रह सका।
५. आभार-दर्शन जिन जिन व्यक्तियों को थोड़ी या बहुत किसी न किसी प्रकार की सहायता इस कार्य में मिली है, उन सबका नामनिर्देशपूर्वक जलेख न तो संभव है और न आवश्यक ही। फिर भी मुख्य मुख्य व्यक्तियों के प्रति आभार प्रदर्शित करना मेरा कर्तव्य है। अयर्तक श्री० कान्तिविजयजी के प्रशिष्य सुचेता मुनि श्री पुण्यविजयजी के सक्रिय साक्षित्व में इस कार्य का श्रीगणेश हुआ। प्रस्तुत कार्य को शुरू करने के पहले से अंत तक मात्र प्रोत्साहन ही नहीं प्रत्युत मार्मिक पथ-प्रदर्शन व परामर्श अपने सदा के साथी श्रीमान् जिनविजयजी से मुझे मिला । बिहान मित्र श्री रसिकलाल परीख बी० ए०ने न केवल अधिकार का परिचय लिखकर ही पूस कार्य में सहयोग दिया है बल्कि उन्होंने छपे हुए भाषा-टिप्पणों को तथा छपने के पहले मेरी प्रस्तावना को पढ़ कर अपना विचार भी सुझाया है। पं० बेघरदास ने मूल अन्य के कई प्रकों में महस्व की शुद्धि भी की और प्रस्तावना के सिवाय पाकी के सारे छपे हुए फी को पद कर उनमें दिखलाई देने वाली अशुद्धियों का भी निर्देश किया है। मेरे विद्यागुरु महामहोपाध्याय पंक बालकृष्ण मिश्र ने तो जन्म जप में पहुँचा तब तब बड़े उत्साह व आदर से मेरे प्रभों पर अपनी दार्शनिक विद्या का गम्भीर खजाना ही खोल दिया जो मुझे सास कर भाषा-टिप्पण लिखते समय उपयोगी हुआ है। मीमांसाधुरीण पं० चिन्मस्वामी लथा धैयाकरणरूप पं० राजनारायण मिश्र से भी मैंने कभी कभी परामर्श लिया है। विदुषी श्रीमती हीराकुमारीजी ने तीसरे आशिक के भाषा-दिप्पणों का बहुत बड़ा भाग मेरे कथनानुसार लिखा और इस लेखन काल में जरूरी साहित्य को भी उन्होंने मुझे पढ़ सुनाया है। सातवाँ परिशिष्ट तो पूर्ण रूप से ही ने तैयार किया है। मेरे मित्र व विद्यार्थी मुनि कृष्णचन्द्रजी, शान्तिलाल सथा महेन्द्रकुमार