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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
अन्त्यहलोऽश्रदुदी ॥२५॥
(इस सूत्रमें १.१.२४ से) लोपः पदकी अनुवृत्ति है। शब्दोंमें अन्त्य हल् का यानी व्यंजनका लोप होता है । (सूत्रमेंसे) अश्रदुदी यानी श्रत् इस अव्यय तथा उत् इस उपसर्ग को छोडकर । उदा.-यावत् जाव । यशस् जसो । तमस् तमो। जन्मन् जम्मो। (सूत्रमें) श्रत् और उत् को छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण इन शब्दोंमें अन्त्य व्यंजनका लोप नहीं होता। उदा.)-श्रद्धा सध्दा । श्रद्दधाति सद्दहइ । श्रद्धानम् सद्दहणं। उद्गतम् उग्ग। उन्नतम् उण्णअं। किंतु समासमें, वाक्यविभक्तिकी अपेक्षासे (पहले पदका अन्त्य व्यंजन) कभी अन्त्य माना जाता है, तो कभी अनन्त्य माना जाता है; इसलिए दोनोंभी (यानी कभी उसका लोप तो कभी उसका वर्णान्तर) हो जाते हैं । उदा.-सद्भिक्षुः सब्भिक्खू सभिक्खू । सज्जनः सज्जणो सजणो । एतद्गुणाः एअग्गुणा एअगुणा । तद्गुणाः तग्गुणा तगुणा ।। २५॥ निर्दुरि वा ।। २६॥
निस् और दुस् इन उपसर्गोमें, अन्त्य व्यंजनका विकल्पसे लोप होता है। उदा.-नि:सहम् णिस्सहं णिसहं । निर्घोषः णिग्घोसो णिधोसो। दुःसहः दुस्सहो दूसहो । दुःखितः दुक्खिओ दुहिओ । दुर्भगः दुब्भओ दूहवो ।। २६ ।। अन्तरि च नाचि ।। २७ ।।
__ अन्तर् शब्दमें, तथा (सूत्रमेंसे) चकारसे नि और दुर् इन शब्दोंमें, अन्त्य व्यंजनका, आगे स्वर रहे तो, लोप नहीं होता । उदा.अन्तरंगो। णिरवसेस । दुरुत्तरं । दुरवगाहं । कचित् 'अन्ताउवरि' ऐसा भी (वर्णान्तर) दिखाई देता है ॥ २७ ॥
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