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त्रिविकम-प्राकृत व्याकरण हस्त्र होना-णिअम्बसिलखलिअवीइमालस्स, नितम्बशिलास्वलितवीचिमालस्य । यमुनातटम जउँणअडं जउँणाअडं । नदीस्रोतः गइसोतं णईसोत्तं । गौरीगृहम् गोरिधरं गोरीधरं । वधूमुखम् वहुमुहं वहूमुहं ॥१८॥ सन्धिस्त्वपदे ॥ १२ ॥
संस्कृतमें कहीं हुई सर्व संधियाँ प्राकृतमें विकल्पसे होती हैं। अपदे यानी एकही पदमें (संधि) नहीं होती। (सूत्रमें) 'तु' शब्द विकल्प दिखानेके लिए है। उदा.-व्यासर्षिः वासेसी वासइसी। विषमातपः विसमाअवो विसमआअवो । कवीश्वरः कईसरो कइईसरो। स्वादूदकम् साऊअसं साउउअ । एकही पदमें नहीं होती, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण एकही पदके दो स्वरों में प्रायः संधि नहीं होती।) उदा.-मुद्धाए मुद्धाइ मुग्धायाः। वच्छाओ वच्छाउ वृक्षात् । महइ महति (यानी) पूजन करता है, ऐसा अर्थ । (तथापि) बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् एकही पदमेंभी (संधि होती है। उदा.)-करिष्यति काही काहिइ । द्वितीयः बीओ बिइओ ।। १९॥ न यण् ॥ २० ॥
. (इस सूत्रमें १.१.१९ से) संधिः पदकी अनुवृत्ति है। 'इको यणचि' (पा. ६.१.७७) सूत्रके अनुसार संस्कृतमें जो यणादेश संधि कही गयी है, वह प्राकृतमें नहीं होती। यानी इ-वर्णका यत्व और उवर्णका वस्त्र नहीं होता, ऐसा अर्थ ( होता है)। यण प्रत्याहारसे यद्यपि य , व्, र और ल वर्णोका ग्रहण होता है, तथापि प्राकृतमें ऋ-वर्ण और ल-वर्ण इनका उपयोग न होनेसे, यत्व और वस्व इनकाही यह निषेध है। उदा.-नखप्रभावल्यरुणः णहप्पहावलिअरुणो। सन्ध्यावध्ववगूढः संझावहुअवऊढो। (सूत्रमें) यण ऐसा क्यों कहा है ? (कारण जहाँ यण आदेश होता है, वहीं यह निषेध है, अन्यत्र नहीं, यह दिखानेके लिए।) उदा. गूडोदरतामरसानुसारिणी गूढोअरतामरसाणुसारिणी।।२०।।
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