Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 12
________________ उपासना द्वारा ही वस्तुस्वरूप का निर्णय करने की उत्कण्ठा रखता है। मानव-शरीर में सभी अंग महत्त्वपूर्ण हैं, परन्तु नेत्रों का स्थान सर्वोपरि है। यदि नेत्र नहीं हैं, तो शरीर का भार पहाड़ हो जाता है। एक चरण की दूरी कोस भर लगने लगती है। संसार के रोचक विलास, पुष्पावलि के चित्ताकर्षक रंग, राजमार्ग पर अपने पैरों से नि:शंक चंक्रमण—सभी अदृष्ट हो कर जीवन की शून्यता से रिक्त कर देते हैं। वह अपने प्रियजनों का मुख नहीं देख सकता, स्वाध्याय नहीं कर पाता और हाथ-पैर होते हुए पंगु हो जाता है। यही दयनीय स्थिति उसकी है, जो ज्ञान-नेत्रहीन है। 'हितं हित्वा हिते स्थित्वा दुर्धीई:खायते भृशम् ।' – (आत्मानुशासन 146) —कुबुद्धि मनुष्य हितमार्ग को छोड़कर तथा अहितमार्ग को अंगीकार कर अनेक दु:ख उठाता है। सम्यग्ज्ञान-वंचितों के भाग्य में विपरीतार्थ-दर्शन-वृत्ति ही प्रातिस्विक रूप में प्राप्त है। ज्ञानवान् के चरणों में कुण्ठा की अगति नहीं होती। वह पदार्थों के आभ्यन्तर एवं बाह्य-उभयस्वरूप को जानने से अपने द्वारा क्रियमाण व्यवहार तथा निश्चय में संशयरहित होता है। भर्तृहरि ने विद्या तथा ज्ञान से वंचितों को मनुष्य शरीरधारी मृग (पशु) कहा है। इतना ही नहीं, वह तो यहाँ तक कहते हैं कि 'दुर्गम वनों में वनचरों के साथ कालक्षेप करना तो ठीक है, परन्तु महेन्द्र के स्वर्ग में भी मर्यों की संगति में रहना उचित नहीं।' प्रशस्त जीवन की कला, जीवित रहने का फल, आनन्द के मार्ग, आत्मपरमात्मपरामर्श ग्राह्य-अग्राह्य-वस्तु-विज्ञान, निराकुलता इत्यादि की सम्प्राप्ति ज्ञान बिना संभव नहीं। चाहे कोई विद्वान् का शिष्य बने, परन्तु मूों का पुरु' पद स्वीकार न करे। यह मोह भी अज्ञान से परिचालित है। ज्ञान : कुछ घर से, कुछ बाहर से ___ अज्ञानी व्यक्ति नदी में पाँव रखता है, तो इबने का भय है; यदि यज्ञवेदी पर बैठता है, तो जल जाने का डर है; यदि उसे फल खरीदने भेज दिया जाए, तो वह मधुर फलों को छोड़कर कटु-तिक्त-कषाय खरीद लेगा; क्योंकि न उसे अमृत का ज्ञान है और न विष की परीक्षा। वह हिताहित-ज्ञान से शून्य है; इसीलिए समाज (मनुष्य-जाति) में पाठशालाओं की विधि है। अनेक विषय उसे विद्याशालाओं में पढ़ाये जाते हैं और एकप्रकार से लौकिक ज्ञान प्रदानकर संसार-यात्रा के लिए उपयुक्त किया जाता है। पशु-पक्षी भी अपने-अपने अपत्यों (संतानों) को जातिगत-ज्ञान की परम्परा प्रदान करते हैं। इसप्रकार कुछ ज्ञान उसे घर से, कुछ बाहर से प्राप्त हो जाता है। यह ज्ञान के विषय में लौकिक अपेक्षा से किया गया सामान्य निर्वचन है। ओढ़ा हुआ ज्ञान हितानुबन्धि ज्ञानम्' ज्ञान के विषय में यह अत्यावश्यक परामर्श है कि वह हितानुबन्धी होना चाहिये; क्योंकि इसे आलोक अथवा प्रकाश कहा है। प्रकाश अग्नि से, 00 10 प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000

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