Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 59
________________ भी इसी परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। इसी क्रम में श्री गद्धपिच्छाचार्य उमास्वामी द्वारा रचित 'तत्त्वार्थसूत्र' नामक ग्रंथ लघुकाय होते हुये भी इतना महत्त्वपूर्ण है कि अनेक ज्ञान-पिपासु मुमुक्षु श्रावक सतत इसका स्वाध्याय और अध्ययन करते हैं। __ ये कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं, जो मूलागम (श्रुत) का आधार लिए हुए हैं। अत: उनके अंश या अंग के रूप में स्वीकार्य हैं। इनके पश्चाद्वर्ती अनेक आचार्यों, विद्वानों ने विभिन्न आध्यात्मिक एवं लौकिक विषयों पर आधारित अनेक विशालकाय ग्रंथों की रचना की है, जो जिनवाणी के रूप में हमारे लिये शिरोधार्य हैं। इसप्रकार अनतिसंक्षेप-विस्तरेण जिनागम के विषय में प्रस्तुत विवक्षा है। संदर्भग्रंथ सूची 1. 'मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम्।' – (तत्त्वार्थसूत्र) 'आद्ये परोक्षम्', 'प्रत्यक्षमन्यत्' । – (तत्त्वार्थसूत्र) 2. जो हि सुदेणाहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोगप्पदीवयरा।। - (समयपाहुड, 9) 3. जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा।। . सुदणाणमाद सव्वं जह्मा सुदकेवली तम्हा। – (समयपाहुड, 10) 4. जो हि सुदेण विजाणदि अप्पाणं जाणगं सहावेण। .. तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोगप्पदीवयरा।। -(प्रवचनसार, ज्ञानाधिकार, 33) 5. किं कृतोऽयं विशेष:? वक्तृविशेषकृत: । त्रयो वक्तार: सर्वज्ञस्तीर्थंकर इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति । तत्र सर्वज्ञेन परमर्षिणा परमाचिन्त्यकेवलज्ञानविभूतिविशेषण अर्थत: आगम उद्दिष्टः। तत्त्वप्रत्यक्षदर्शित्वात् प्रक्षीणदोषत्वाच्च प्रामाण्यम्। तस्य साक्षाच्छिष्यैर्बुद्ध्यतिशयर्द्धियुक्तैर्गणधरैः श्रुतकेवलिभिरनुस्मृतग्रंथरचनमंगपूर्वलक्षणं तत्प्रामाण्यम्; तत्प्रामाण्यात् । आरातीयैः पुनराचार्यैः कालदोषात्संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहार्थं दशवैकालिकाद्युपनिबद्धम्। तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीणार्णवजल घटगृहीतमिव । -(सर्वार्थसिद्धि, प्रथमोऽध्याय, 211) 6. तं जहा णाणस्स पंच अत्थाहियारा—मइणाणं सुदणाणं ओहिणाणं मणपज्जवणाणं केवलणाणं चेदि। सुदणाणे दुवे अत्थाहियारा अणंगपविट्ठमंगपविटुं चेदि। अणंगपविट्ठस्स चोद्दस्स अत्थाहियारा-सामाइयं, चऊवीसत्थो, वेदणा, पडिक्कमणं, वेणइयं, किदियम्मं, दसवेयालिया, उत्तरज्झयणं कप्पववहारो, कप्पाकप्पियं, पुण्डरीगं महापुण्डरीगं, णिसीहियं चेदि। -(जयधवला सहित कसायपाहुड', भाग 1, गाथा 2/213) 7. जयधवला सहित कसायपाहुड', भाग 1, गाथा 1/113।। 8. वही, गाथा 1/1151 9. वही, गाथा 1/1161 ** प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च '2000 10 57

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