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आचार्यश्री विद्यानंद वन्दनाष्टक
-विद्यावारिधि डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया
धन्य धन्य प्रज्ञापुरुष, जिये पचहत्तर वर्ष । तुम्हें देखकर हो रहा, भीतर-बाहर हर्ष ।। 1।। अपनाया तुमने सहज, जग-जीवन का सार। त्याग दिया पल में सभी, देह-भोग-संसार।। 2 ।। व्रत का अमृत पानकर, पाला संयम-रूप। द्वादश तप के तेज से, निखरा रूप-अनूप ।। 3 ।। ज्ञान और श्रद्धान से, जगा विवेक विशेष । लखा आपने आपको, जागा अन्तर्देश ।। 4।। 'अनेकान्त' लेकर किया, 'स्याद्वाद'-संलाप । शान्त हुये पल में सभी, वैचारिक संताप।।5।। सत्य-अहिंसा के दिये, जीवनभर उपदेश । समता औ' सम्यक्त्व का, दिया विश्व-संदेश।। 6।। शौरसेनि भाषा हुई, प्राकृत की शिरमौर। आगम की भाषा बनी, हुई ख्याति चहुँ ओर।। 7।। अपनाकर सल्लेखना, किया अनूठा काम । चले मांगलिक मार्ग पर, क्षय करने कर्म तमाम ।। 8।।
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जैनों की बाइबिल 'द्रव्यसंग्रह' और 'तत्त्वार्थसूत्र' को वे (ब्र० शीतल प्रसाद जी) 'जैनों की बाइबिल' समझते थे। जहाँ जाते, योग्य छात्रों को पढ़ाते। इन ग्रंथों का अधिक-से-अधिक प्रचार करते।
-(साभार उद्धृत, जैन जागरण के अग्रदूत', पृष्ठ 83) **
प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
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