Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 83
________________ ही नग्न दिगम्बर अवस्था धारण की जाती थी। 'यापनीय' (श्वेताम्बर) को छोड़कर ये भट्टारक काष्ठा, द्राविड, माथुर आदि दिगम्बर-परम्पराओं के अन्तर्गत ही हैं। दिगम्बर दीक्षा-पट्टाभिषेक के अन्तर्गत स्वयं को मानते हैं, उनके सहस्रों दिगम्बर गृहस्थ भी ऐसा ही मानते हैं। इसलिए कमंडलु (सोना-चाँदी) के साथ विशेष छत्र, चामर, गादी, पालकी व बहुमूल्य वस्त्र तथा मयूर की, बलाक की, गृद्ध की पिच्छी रखते हैं तथा कुछ अपने गण-गच्छ के अनुसार व बिना पिच्छी भी रहते हैं। बड़ी संख्या में मंदिर-मूर्तियों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, चारों अनुयोगों के सैकड़ों ग्रंथों की रचना, तीर्थयात्रा, यंत्र-मंत्र का चमत्कार, शासकों पर प्रभाव आदि में इनकी विशेष प्रसिद्धि है। हमारे शास्त्र-भण्डारों में इनके ही पूर्व दिगम्बराचार्यों के नाम से तथा स्वयं भट्टारकों के द्वारा लिखित ग्रंथ विद्यमान है। कतिपय ग्रंथों में वैदिक-परम्परा के क्रियाकांड सम्मिलित है। दक्षिण श्रवणबेलगोला में विविध लोकहितकारी संस्थाओं के निर्माता महान् विद्वान् भट्टारक भी विद्यमान हैं। अन्यत्र कोल्हापुर, हुम्मच, मूडबिद्री, ऋषभदेव आदि स्थानों पर ही भट्टारक अभी हैं। सागवाड़ा (राज०) में प्राचीन श्री सकलकीर्ति भट्टारक की खाली गादी पर आप (आ० योगीन्द्रसागर) विराजमान होना चाहते हैं, यह पत्र-पत्रिकाओं में आलोचनाओं-सहित समाचार प्रकाशित है। निवेदन है कि उस गादी पर किसी योग्य ब्रम्हचारी विद्वान् को बैठा देवें और आप अपने उच्च दिगम्बरत्व के पद को सुरक्षित रखते हुए यशस्वी बनें। आपका पद बहुत ऊँचा है। 'भट्टारक-पद' आपके लिये मुनिपद का अवमूल्यन है। आप गृहस्थावस्था से 'भट्टारक-पद' की दीक्षा लेते, तो उसका विरोध नहीं होता; क्योंकि आपके भक्त सागवाड़ा व आसपास के जैनाजैन हजारों की संख्या में है। फिर दिगम्बर भी जैसा आप चाहते हैं, आप रह सकते थे। किन्तु 'दिगम्बर मुनि-पद' की दीक्षा लेकर निर्ग्रन्थ से सग्रंथ होना शोभनीय नहीं। 'भट्टारक-पद' पर चाहे आप दिगम्बर रहें; किंतु सग्रंथ-परिग्रह के कारण यह आपके वर्तमान पद से नीचा पद है। आशा है आप मेरे नम्र निवेदन पर ध्यान देते हुये अपने वर्तमान पद के व्रत को भंग नहीं करेंगे, क्योंकि इससे आप व्रतभंग का फल दुर्गति का कारण बनेगें और आपको अपकीर्ति का भागी होना पड़ेगा। थोड़े-से मनुष्य जीवन में मर्यादा में परोपकार के साथ स्वोपकार करते हुए आत्महित में समय व्यतीत करना ही श्रेयस्कर है। आपका हम लोगों पर विश्वास है। हम लोग भी आपको परम विद्वान्, प्रभावक प्रवक्ता एवं वंदनीय मानते हैं। विश्वास है कि हमारा अनुरोध कभी नहीं टलेगा। साधु को स्वप्न में भी अशुभ भाव नहीं होते भारतीय श्रमण-दर्शन में नींद में भी आंशिक समाधि-सी मानी गयी है। यानी आंशिक | शुद्धोपयोग साधु के लिये साधना में वरदान सिद्ध होगा। प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 40 81

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