Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 82
________________ भट्टारक- परम्परा एवं एक नम्र निवेदन - नाथूलाल जैन शास्त्री दक्षिण के श्रवणबेलगोला, मूडबिद्री, कारकल, हुम्मच, महाराष्ट्र में कारंजा, मलखेड, लातूर, कोल्हापुर, जिन्तूर, नांदेड, देवगिरि, नागपुर, असागांव तथा राजस्थान में नागोर, प्रतापगढ़, जयपुर, अजमेर, ऋषभदेव, चित्तौड़, प्रतापगढ़, मानपुर, जेरहट, सागवाड़ा, महुआ, डूंगरपुर, और म०प्र० में इन्दौर, ग्वालियर, सोनागिर में भट्टारकों का केन्द्र तथा नवारी, भडौच, खंभात, घोघा आदि में इनका प्रभाव था । इनके बलात्कारगण, सेनगण, लाड़वा, सोजित्रा, नंदी, माथुर, काष्ठा, देशीय, द्राविड आदि गण- गच्छ थे । भट्टारक-परम्परा नवम शताब्दी से प्रारंभ होकर लगभग तेरहवीं सदी में स्थिर हुई है। श्रुतसागर सूरि के अनुसार बसंतकीर्ति द्वारा यह प्रथा आरंभ की गई । भगवान् महावीर के निर्वाण के 683 वर्ष तक श्रुतधर आचार्य-परम्परा का इतिहास उपलब्ध है। सम्राट् खारवेल (पूर्व वि०सं० 160 ) द्वारा श्रुतसंरक्षण एवं सरस्वती - आंदोलन किये जाने पर उत्तर भारत में दुष्काल के पश्चात् दक्षिण से आये हुए दिगम्बराचार्य गुणधर, श्री कुन्दकुन्द, आचार्य धरसेन के शिष्य श्री पुष्पदंत, श्री भूतबलि ने पूर्व मुखाग्र श्रुत को स्मृति अनुसार शास्त्र - निबद्ध किया । इसीप्रकार श्वेतांबर - सम्प्रदाय द्वारा भी आगम को उनके अनुसार पुस्तकारूढ़ किया गया। इसकी चर्चा मैंने अपनी नवीन पुस्तक 'मूलसंघ और उसका प्राचीन साहित्य' में विस्तार से की है। साधुओं के आचार-विचार में धीरे-धीरे शिथिलता आने से वि०सं० 136 में स्पष्ट रूप में सम्प्रदाय-भेद हो गया । दिगम्बर मुनियों में भी आदर्श और विशाल दृष्टि कम होकर संरक्षण और सम्प्रदाय की प्रवृत्ति बढ़ गई । विकासशीलता और व्यापकता का दृष्टिकोण नहीं रहा। फलस्वरूप भट्टारक-सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ । यह सब मुनिसंघ में ही हुआ। मुस्लिम राज्य में परिस्थितिवश वस्त्र धारण की प्रथा को बल मिला। साथ ही हम गृहस्थों का सहयोग भी रहा । हम ही ने पूजा-पाठ और आवास हेतु मठ, खेत और मंदिर आदि समर्पित किये, जिनके स्वामित्व का उन्हें अवसर मिला । हम लोगों ने अपवाद-मार्ग के रूप में उन्हें मान्यता दे दी । इनकी मर्यादातीत प्रवृत्ति का विरोध जयपुर, आगरा आदि के विद्वानों ने बाद में किया। इससे उत्तर प्रांतों में यह प्रथा बन्द - सी हो गई । दिगम्बरत्व तो पूज्य उस समय भी था, इसी कारण 'भट्टारक पद' के लिये प्रथम प्राकृतविद्या + जनवरी-मार्च 2000 ☐☐ 80

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