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पुस्तक-समीक्षा
पुस्तक का नाम : मूलसंघ और उसका प्राचीन साहित्य लेखक का नाम : पं० नाथूलाल जी शास्त्री प्रकाशक : कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, 40, सर हुकमचन्द मार्ग, इन्दौर-452002
(म०प्र०) संस्करण : प्रथम संस्करण 1999 ई०, पृष्ठ 202, डिमाई साईज़, पेपरबैक मूल्य : निर्दिष्ट नहीं __ जैन समाज के वयोवृद्ध, गरिमामंडित, गंभीर वैदुष्य के धनी विद्वद्रत्नों में पं० नाथूलाल जी शास्त्री, इन्दौर (म०प्र०) का नाम अग्रगण्य है। वे निर्विवाद व्यक्तित्व हैं तथा आगमोक्त रीति से सप्रमाण ही कथन करनेवाले प्रज्ञामनीषी हैं। उनकी पुण्यलेखनी इस वार्धक्य में भी युवकों से भी अधिक सटीक एवं सक्रियता से साहित्यसृजन कर रही हैयह समाज को सुखद अनुभूति का विषय है। ___आदरणीय पंडित जी साहब ने डॉ० सागरमल जैन की पुस्तक 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' नामक कृति में वर्णित पूर्वाग्रही एवं तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किये गये तथ्यों से उत्पन्न भ्रामक स्थिति को दृष्टि में रखकर आगम एवं अन्य विविध प्रमाणों के आलोक में इस कृति की रचना की है। इसमें मूलसंघ और उनकी प्राचीनता के पूर्ण प्रमाणों को प्रस्तुत करते हुये विभिन्न आक्षेपों का सटीक, सप्रमाण उत्तर दिया है। समस्त मूलसंधानुयायी दिगम्बर जैन समाज को यह कृति अवश्य ही पठनीय है। इसमें प्रस्तुत तथ्यों एवं विवेचन से अनेकों भ्रान्तियों का निवारण होता है तथा हमारे आचार्यों एवं उनके साहित्य
के बारे में यथार्थ जानकारी मिलती है। ___ सम्पूर्ण कृति में पं० जी साहब के ज्ञान की गम्भीरता, व्यापक शास्त्रीय अध्ययन, जीवन का अनुभव तथा संतुलित दृष्टिकोण का स्पष्ट दर्शन होते हैं। ऐतिहासिक, दार्शनिक, साहित्यिक एवं तात्त्विक दृष्टियों से इसमें प्रतिपादित तथा अत्यन्त उपयोगी हैं। इसके प्रारंभ में आचार्यश्री विद्यानंद जी मुनिराज का आशीर्वचन गुरु-गंभीर एवं मांगलिक उपलब्धि है।
इसके सम्पादन एवं प्रूफ-संशोधन में यद्यपि कुछ संभावनायें रह गयी हैं, फिर भी
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प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000