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में श्रीवृद्धि करते हुए आपने जब 25 वर्ष पूर्ण किये, तो 24 अक्तूबर 1992 को तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम डॉ० शंकरदयाल शर्मा जी की उपस्थिति में हुए भव्य समारोह में आपके 'राजर्षि' की उपाधि से विभूषित किया गया। ___ आपश्री की छत्रछाया में दक्षिण कर्नाटक में ग्रामीण-विकास, स्वयं-रोजगार आदि की अनेकों जनकल्याणकारी योजनायें प्रवर्तित हैं। इनके अतिरिक्त धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक एवं चिकित्सा आदि क्षेत्रों में भी आपके द्वारा अनेकों महत्त्वपूर्ण योजनायें संचालित हुईं हैं, जो नये कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं। श्रीक्षेत्र धर्मस्थल पर आने वाले सभी श्रद्धालुजनों के लिए 'अन्नपूर्णा भोजनालय' का संचालन, निर्धनवर्ग के युवक-युवतियों के सामूहिक विवाह-कार्यक्रमों का आयोजन तथा उनमें कन्याओं को अपनी ओर से मंगलसूत्र, स्वर्णाभूषण; वस्त्र आदि भेंट देना आदि अनेकों समाजसेवा के कार्य निरन्तर प्रगतिपथ पर अग्रसर हैं। शैक्षिक क्षेत्र में ग्रामीणस्तरीय आदर्श प्राथमिक विद्यालयों से लेकर मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज आदि भी आपश्री की छत्रछाया में अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर भारती सांस्कृतिक परिवेश में चल रहे हैं। व्यसनमुक्ति-प्रतिष्ठान जैसे अभिनव प्रयोग भी आपकी दूरदर्शितापूर्ण नीति के परिणाम हैं। ऐसे विनम्र, समाजसेवी, गुणाधिष्ठान, धर्मप्राण, सच्चरित्र महान् व्यक्ति को भारत सरकार ने 'पद्म भूषण' के उच्चतर सम्मान से सम्मानित कर भारतीय गौरवशाली परम्परा का बहुमान किया है।
प्राकृतविद्या-परिवार एवं कुन्दकुन्द भारती न्यास की ओर से आपश्री को इस सम्मान-प्राप्ति की शुभबेला में अच्छे स्वास्थ्य, दीर्घायु एवं निरन्तर उन्नति की मंगलकामनायें सबहुमान समर्पित हैं।
–सम्पादक ** स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत-प्रगति के कर्णधार डॉ० मण्डन मिश्र को 'पद्मश्री' सम्मान
स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भारतवर्ष में ही नहीं अपितु विदेशों में भी संस्कृतभाषा एवं भारतीय संस्कृति का व्यापक प्रचार-प्रसार करनेवाले समर्पित समाजसेवी, भाषाविद्, कुशल प्रशासक एवं यशस्वी विद्वान् डॉ० मण्डन मिश्र जी का नाम आज संस्कृत एवं प्राकृतभाषाओं के साथ अभिन्न रूप से जुड़ गया है।
7 जून सन् 1929 ईस्वी को राजस्थान प्रांत के हणूतिया गाँव में डॉ. मण्डन मिशजी जन्मे स्वनामधन्य डॉ० मण्डन मिश्र जी का संपूर्ण जीवन संस्कृत एवं
प्राकृतभाषाओं तथा भारतीय संस्कृति की सेवा में समर्पित रहा। उन्होंने सदैव मण्डन की प्रवृत्ति को आत्मसात् किया, कभी भी किसी के खण्डन के प्रपंच में नहीं पड़े। उनके लोकमान्य प्रतिष्ठापूर्ण जीवन का यह मूलमंत्र रहा है। पं० नेहरू जी, श्री लालबहादुर शास्त्री जी, श्रीमती इंदिरा गाँधी जी जैसे यशस्वी प्रधानमंत्रियों का निकट साहचर्य पाकर भी आपने कभी कोई राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा नहीं रखी और भारतीय भाषाओं – विशेषत: संस्कृत-प्राकृत तथा ज्ञान-विज्ञान के लिये अपना जीवन समर्पित कर दिया।
प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च '2000
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