Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 95
________________ जहाँ विविध साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों से प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत की गयी है, वहीं श्रुतकेवली भद्रबाहु, सम्राट चन्द्रगुप्त एवं आचार्य चाणक्य आदि का निर्विवाद ऐतिहासिक परिचय बहुआयामी प्रमाणों के साथ दिया गया है। इसी क्रम में श्रवणबेल्गोल-स्थित ऐतिहासिक गोम्मटेश्वर की विशाल मूर्ति, उसके निर्माता, निर्माणविधि आदि का विशद परिचय तो दिया ही है, साथ ही इसमें उपलब्ध श्रवणबेल्गोल-स्थित एवं इस अंचल के पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक महत्त्व के शिलालेखों का परिचय भी अतिमहत्त्वपूर्ण है। फिर इस दिव्य प्रतिमा के महामस्तकाभिषेक एवं उसकी परम्परा के बारे में विशद एवं प्रामाणिक परिचय दिया गया है। तथा उपसंहाररूप में निकटवर्ती महत्त्वपूर्ण स्थानों एवं भगवान् बाहुबलि की मूर्तियों के निर्माण की परंपरा का भी संक्षिप्त परिचय दिया गया है। अंत में तीन परिशिष्ट दिये गये हैं, जिनमें शताब्दी-क्रम से शिलालेखों का उल्लेख, उनकी कुल संख्या एवं वंशावली के अनुसार शिलालेखों का विवरण दिया गया है। ___ कुल मिलाकर सम्पूर्ण पुस्तक विद्वानों, शोधार्थियों एवं अध्येताओं के लिए उपयोगी है ही; साथ ही सामान्य पाठकों के लिए भी रुचिकर सामग्री सरल शब्दावलि में प्रस्तुत करने से उपयोगी है। इसमें महत्त्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थलों के अच्छे छायाचित्र भी आटपपर पर मुद्रित है तथा श्री अक्षय कुमार जैन जी की प्रस्तावना' एवं लेखक की 'भूमिका' भी उपयोगी है। इतिहास, संस्कृति, पुरातत्त्व एवं धर्म-दर्शन में रुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस पुस्तक में पर्याप्त आकर्षण की सामग्री उपलब्ध है तथा यह कृति सभी के लिए संग्रहणीय भी है। –सम्पादक ** पुस्तक का नाम : गौरव गाथा : आचार्यश्री विद्यानन्द लेखक : अखिल बंसल प्रकाशक : बाहुबलि सेवा संस्थान, 129-बी, जादौन नगर, स्टेशन रोड, दुर्गापुरा, जयपुर (राज.) संस्करण : प्रथम, 22 अप्रैल 1999 मूल्य : पच्चीस रुपये मात्र, चित्रकथा की A/5 साईज, रंगीन मुद्रण। बालकों में बहुरंगी चित्रकथायें अत्यन्त लोकप्रिय होती हैं। वे अत्यन्त रुचि से इन्हें पढ़ते हैं। तथा चित्रों के कारण इन्हें समझने में उन्हें सुविधा तो होती ही है, आकर्षण भी विशेष रहता है। इसी दृष्टि से जैन-परम्परा में भी वर्तमान युग में चित्रकथाओं के प्रकाशन का क्रम चला है। यह नयी पीढ़ी में संस्कार-निर्माण की दृष्टि से निश्चय ही प्रशंसनीय है। इसके माध्यम से पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी के जीवन-दर्शन की प्रेरक झलक प्राप्त होती है। इस अनुकरणीय कार्य के लिये लेखक एवं प्रकाशक धन्यवाद के पात्र हैं। –सम्पादक ** प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च '2000 10 93

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