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महाव्रात्य
'व्रात्य आसीदीयमान एव स प्रजापतिं समैरयत् ।
स प्रजापति: सुवर्णमात्मन्नपश्यत् तत् प्राजनयत् ।। तदेकमभवत् तत्ललामभवत् तन्महदभवत् तज्जेष्ठमभवत् । तद् ब्रह्माभवत् तत्तपोऽभवत् तत् सत्यमभवत् तेन प्राजायत ।। सोऽवर्धत, स महानभवत्, स महादेवोऽभवत्, स देवा। नामीशां पर्येत् स ईशानोऽभवत् । स एक व्रात्योऽभवत् ।।'
-(अथर्ववेद, 15/1/1-6) अर्थ:- वह प्रजापति था। प्रजापति से उसने अपने आपको ऊपर उठाया अर्थात् नृपति-पद से ऊपर हुआ। गृहस्थ से सन्यास की ओर चलते हुए (ईयमान:) तत्काल उस प्रजापति ने व्रतों को ग्रहण किया, व्रात्य हो गया। उस प्रजापति ने आत्मा को सुवर्ण (किट्ट-कालिमादिरहित कांचन के समान अन्य पौद्गलिक-पदार्थ मोहकर्म सम्पर्करहित) देखा। उसने उसीको तपस्या से विशुद्ध किया-संस्कारित किया। तब वह आत्मा एक अभेद हुआ, विलक्षण हुआ, महान् ललाम-सुंदर हुआ, ज्येष्ठ हुआ, ब्रह्मा हुआ, तप हुआ और सत्य हुआ। वह अपने उक्त गुणों से ही पर्यायरूप में मानो नवीन उत्पन्न हुआ। वह ज्ञान से बढ़ा, महान् सर्वज्ञ हुआ महादेव हुआ। उसने सब देवों के ऐश्वर्य का अतिक्रमण कर ईशान पद प्राप्त किया। वह प्रथम व्रात्य (आद्य महाव्रती) हुआ।
इनके अतिरिक्त डॉ० जगदीशदत्त दीक्षित के विचार द्रष्टव्य हैं—“अथर्ववद में 'व्रात्य' की महत्ता इसप्रकार वर्णित है कि यदि यज्ञ करते समय व्रात्य आ जाये, तो याज्ञिक को चाहिये कि व्रात्य की इच्छानुसार यज्ञ को करे अथवा यज्ञ को बन्द कर दे अथवा व्रात्य जैसा यज्ञविधान बताये, वैसा करे। विद्वान् ब्राह्मण 'व्रात्य' से इतना ही कहे कि “जैसा आपको प्रिय है, वैसा ही किया जायेगा।" आत्मसाक्षात्द्रष्टा महाव्रात्य को नमस्कार है। .......यही व्रात्य आजकल के जैनमतानुयायी हैं। महाव्रतपालक व्रात्य जैनसाधु हैं और सामान्य व्रात्यधर्म ही आज का जैनधर्म है। इन व्रात्यों की संस्कृति आध्यात्मिक थी, जबकि आर्य लोगों की संस्कृति आधिदैविक थी।"
__ -(ब्राह्मण तथा श्रमण संस्कृति का दार्शनिक विवेचन, पृ० 76) • जैनधर्म के प्रवर्तन-काल के बारे में विद्वान् पी०सी० राय चौधरी ने लिखा है कि"श्री वृषभदेव ने जैनधर्म का प्रचार मगध (बिहार) में पाषाणयुग के शेष और कृषियुग के आरम्भ में किया था।" – (जैनिज्म इन बिहार, पृ० 7)
मेरा इतना ही निवेदन है कि लेखक विद्वान् पूर्वाग्रहरहित होकर निष्पक्षभाव से तथ्यों का प्रस्तुतीकरण करें, ताकि पाठकों को निर्दोष एवं प्रामाणिक पाठ्यसामग्री मिले। अपने श्रम के लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं। मुद्रण का स्तर सामान्य है।
–सम्पादक **
प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
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