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अप्रतिम सामग्री से मेरे ज्ञान में अपूर्व अभिवृद्धि हुई है।
–हुकमचंद सोगानी, उज्जैन, (म०प्र०) ** : 0 'प्राकृतविद्या' के अक्तूबर-दिसम्बर 1999 ई० अंक में आपके लेख कातंत्र व्याकरण' पर पढ़ा। काफी परिश्रम से आपने लिखा है, इसी तरह अपने अध्यवसाय को ज्ञानाराधना में लगाये रखें। -डॉ० दामोदर शास्त्री, शृंगेरी, (कर्नाटक) **
● 'प्राकृतविद्या' का सद्य: प्रकाशित अंक मिला। सच कहूँ – इस पत्रिका से मुझे प्राकृत साहित्य को समझने में बड़ी मदद मिल रही है।
-डॉ० प्रणव शर्मा 'शास्त्री', बदायूँ (उ०प्र०) ** ● 'प्राकृतविद्या' के अंक निरन्तर मिल रहे हैं। सामग्री पठनीय होती है। पत्रिका में निखार आ रहा है। -डॉ० ऋषभचन्द्र जैन “फौजदार", वैशाली (बिहार) **
● 'प्राकृतविद्या' के अक्तूबर-दिसम्बर 1999 ई० का अंक प्राप्त हुआ। मध्यमा, शास्त्री में अनेक ग्रन्थ पढ़े प्राकृतभाषा से शास्त्री उत्तीर्ण की जैनदर्शन में प्राकृतभाषा पूर्व थी, अब वरदराजा द्वारा संस्कृत का प्रादुर्भाव हुआ। जैन आयुर्वेद ग्रन्थ हैं। प्राकृतप्रकाश व्याकरण हेतु उत्तम है। प्रत्येक अंक समय पर भेज रहे हैं, इस पत्रिका को हार्दिक शुभकामनायें है। आपने जैनधर्म का उत्थान किया है। -नन्हेलाल जैन, ऐरौरा, टीकमगढ़ (म०प्र०) **
0 'प्राकृतविद्या' का अक्तूबर-दिसम्बर 1999 ई० का अंक प्राप्त हुआ। पत्रिका में संकलित लेख अनुसंधानपरक हैं। संपादकीय "ग्रामे-ग्रामे कालापक...." अपने आप में ज्ञानवर्धक, विचारशील तथा दिशा-दर्शाने वाला है। डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री ने 'महाबंध' की भाषा पर विचार-विमर्श किया है। डॉ० कुन्दनलाल जैन ने 'वोद्वे' शब्द पर से भ्रांति का आवरण हटाया है। वैशाली नगरी के व्यापारिक पक्ष पर डॉ जयन्त कुमार ने ऐतिहासिक दृष्टि से प्रकाश डाला है। राजमल जैन ने केरल में जैनधर्म की प्राचीनता का विवरण अत्यंत रोचक रूप में प्रस्तुत किया है। जैन शोध-पत्रिकाओं में प्राकृतविद्या' की अपनी अलग पहचान है।
-डॉ० निजामुद्दीन, श्रीनगर (काश्मीर) **
ज्ञानदान सर्वश्रेष्ठ है "सर्वेषामेव दानानां 'विद्यादानं ततोऽधिकम् ।" – (अत्रि०, 338) अर्थ:-सभी दानों में विद्यादान' या 'ज्ञानदान' सर्वश्रेष्ठ है।
दान चार प्रकार के माने गये हैं—आहारदान, औषधिदान, ज्ञानदान एवं क्षमादान। इन सभी का अन्तरायकर्म के उपशय के लिए विशेष योगदान रहता है। चूँकि ज्ञानदान मनुष्य के व्यक्तित्व को, विचारों को और आचरण को भी संस्कारित, परिमार्जित करता है; अत: यह सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। एक सुशिक्षित सुयोग्य विद्वान् अनेकों मनुष्यों को संस्कारित कर सम्पूर्ण समाज एवं राष्ट्र का हितसाधन कर सकता है। इसीलिए ज्ञानदान वैयक्तिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्थान में अत्यधिक हितकारी होने से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है।
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प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च '2000