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में आश्वास बना और यही अपभ्रंश में आकर कडवक बन गया। परन्तु विचार करने से ज्ञाता होता है कि कतिपय अपभ्रंश-ग्रन्थों में सर्ग के स्थान पर सन्धि या परिच्छेद शब्द का व्यवहार हुआ है, अत: कडवकों को 'सर्ग' मानना उचित नहीं है। 'महाकाव्य' में 'सर्ग' का ठीक वही महत्त्व है, जो नाटक में 'अंक' का। नाटक का 'अंक' कथा के किसी निश्चित बिन्दु पर समाप्त होता है। वह एक अवान्तरकार्य की परिसमाप्ति की सूचना भी देता है। ठीक यही काम ‘सर्ग' भी करता है, पर कडवक' इतने छोटे होते हैं कि वे इस सर्ग की उक्त शर्त को पूर्ण नहीं कर पाते। अतएव 'सन्धि' को तो सर्ग' अवश्य कहा जा सकता है, पर कडवकों को नहीं। हमारा अपना अनुमान है कि कडवक का विकास लोक-गीतों के धरातल पर हआ है। जब अपभ्रंश में प्रबन्ध-पद्धति का आविर्भाव हुआ और दोहा-छन्द इनके लिये छोटा पड़ने लगा, तब अपभ्रंश-कवियों ने मात्रिक-छन्दों की परम्परा पर प्रबन्ध के वहन कर सकने योग्य पद्धडिया-छन्द का विकास किया। 16, 20,24, 28, 32 एवं 48 अर्धालियों के अनन्तर 'घत्ता छन्द' देकर कडवक' लिखने की परम्परा आविर्भूत हुई।
लोकगीतों के विकास से ज्ञात होता है कि वीरपुरुषों के आख्यान गेयरूप में प्रस्तुत किये जाते थे। ये गीत किसी न किसी आख्यान को लेकर चलते थे। गेयता रहने के कारण आख्यान रोचक हो जाते थे। प्राकृत-काल में भी प्रबन्ध-लोकगीत अवश्य रहे होंगे और इन गीतों का रूप-गठन बहुत कुछ ‘पद्धडिया-छन्द' से मिलता-जुलता रहा होगा। यदि यों कहा जाय कि प्रबन्ध-लोकगीतों में व्यवहृत तुक वाला छन्द, जिसका कि मूल उद्देश्य द्वितीय और चतुर्थ चरण की तुक मिलाकर आनन्दानुभूति उत्पन्न करना था, पद्धड़िया का. पूर्वज है, तो कोई अत्युक्ति न होगी। अत: चउमुह कवि के जिस 'पद्धडिया' छन्द का उल्लेख स्वयम्भू कवि ने किया है, वह निश्चयत: प्रबन्ध लोकगीत से विकसित हुआ होगा। हम अपने कथन की पुष्टि में एक सबल प्रमाण यह उपस्थित कर सकते हैं कि 'कडवक' ठीक प्रबन्ध-लोकगीत का वह रूप है, जिसमें लोकगीत गायक चारुता और सुविधा के आधार पर अपने प्रबन्ध को कई एक गीतों से विभक्त कर विरामस्थल उत्पन्न करता है। ठीक यही परम्परा कडवक' की है। इसमें भी एक सन्दर्भाश को कुछ अर्धालियों में निबद्ध कर 'घत्ता' विरामस्थल उत्पन्न कर कडवक' का सृजन किया जाता है। अत: 'कडवक' का विकास प्रबन्ध-लोकगीतों की परम्परा से मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। __कडवक' की परिभाषा पर सर्वप्रथम विचार आचार्य हेमचन्द्र ने प्रस्तुत किया है। उन्होंने अपने 'छन्दोऽनुशासन' में (6/1) लिखा है
___ “सन्ध्यादौ कडवकान्ते च ध्रुवं स्यादिति धुवा धुवंक घत्ता वा।"
अपनी संस्कृत-वृत्ति में स्पष्ट करते हुये उन्होंने बताया है कि 'चतुर्भि: पद्धटिकाद्यैश्छन्दोभि कडवकम् । तस्यान्ते धुवं निश्चितं स्यादिति धुवा, ध्रुवकं, घत्ता
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प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000