Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 88
________________ अपभ्रंश के 'कडवक-छन्द' का स्वरूप-विकास -प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन शब्दों का सम्बन्ध किसी एक व्यक्ति से नहीं है। सामाजिक सम्बन्धों के मूल्यनिर्धारण में उपयोगी होने के कारण इनका सम्बन्ध मानवमात्र से है। जिसप्रकार आर्थिक मूल्यों का संचालन सिक्कों द्वारा होता है, उसीप्रकार सामाजिक सम्बन्धों का निर्वाह शब्दों द्वारा। शब्द छन्द का रूप धारणकर विषयीगत भावाभिव्यक्ति करके संगीत का कार्य सम्पन्न करते हैं। यही कारण है कि प्रकृति की पाठशाला में बैठकर मनुष्य ने जबसे गुनगुनाने का कार्य आरम्भ किया, तभी से छन्द की उत्पत्ति हुई। __ 'छन्द' शब्द की व्युत्पत्ति 'छद्' धातु से मानी गई है, जिसका अर्थ 'आवृत्त करने' या 'रक्षित करने' के साथ प्रसन्न करना' भी होता है। 'निघण्ट्र' में प्रसन्न करने के अर्थ में एक 'छन्द्' धातु भी उपलब्ध होती है। कुछ विद्वानों का मत है कि 'छन्द' की उत्पत्ति इसी 'छन्द' धातु से हुई है। भारतीय-वाङ्मय में 'छन्द' को वेदांग' माना गया है और उन्हें वेद का चरण कहा है। महर्षि पाणिनि ने ईस्वी सन् के लगभग 500 वर्ष पूर्व ही “छन्द: पादौ तु वेदस्य" की घोषणा की थी। वृहदेवता' में कहा गया है कि “जो व्यक्ति छन्द के उतार-चढ़ाव को बिना जाने ही वेद का अध्ययन करता रहता है, वह पापी है।" यथा- "आविदित्वा ऋषिछन्दो दैवतं योगमेव च। योऽध्यापयेज्जपेत् वापि पापीयान् जायते तु स: ।।" पर छन्दशास्त्र की व्यवस्थित परम्परा आचार्य पिंगल के छन्दसूत्र से प्राप्त होती है। अनादिकाल से ही मानव छन्द का आश्रय लेकर अपने ज्ञान को स्थायी और अन्यग्राह्य बनाने का प्रयत्न करता आ रहा है। छन्द, ताल, तुक और स्वर समस्त मानव-समाज को स्पन्दनशील बनाते हैं। संवेदनशीलता उत्पन्न कराने में छन्द से बढ़कर अन्य कोई साधन नहीं है। इसी साधन के बल से मनुष्य ने अपनी आशा-आकांक्षा एवं अनुराग-विराग को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक और एक युग से दूसरे युग तक प्रेषित किया है। वैदिक-साहित्य में प्रयुक्त गायत्री, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती छन्द प्रमुख हैं। लौकिक संस्कृत में तो वर्णिक और मात्रिक दोनों ही प्रकार के छन्दों का विविध रूप में प्रयोग हुआ है। इस छन्द-वैविध्य के बीच भी संस्कृत 0086 प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च '2000

Loading...

Page Navigation
1 ... 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120