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आज जो हमारे कसायपाहुड, छक्खंडागमसुत्त (षट्खण्डागमसूत्र) और कुन्दकुन्द-साहित्य सदृश मूल आगमग्रन्थ सुरक्षित मिलते हैं, उनकी सुरक्षा का मूल एवं एकमात्र कारण ये ‘मठ' एवं इनके 'भट्टारक' रहे हैं। कल्पना करें कि यदि इनका संरक्षण नहीं होता, तो दिगम्बर जैन समाज का स्वरूप एवं अस्तित्व ही संकटग्रस्त हो जाता। इन भट्टारकों ने जहाँ अपने प्रबंधकौशल से आतताईयों से हमारे धर्मग्रन्थों की सुरक्षा की, वहीं अपनी प्रतिभा के बल पर इनका अध्ययन-अध्यापन संचालित किया। प्राय: सभी भट्टारक प्रतिभा से भरपूर एवं भद्रपरिणामी ही हुये हैं, अत: धर्मप्रभावना में इनका योगदान अतुलनीय रहा। इसी से प्रभावित होकर समाज ने भी इन्हें प्रभूत आदर-सम्मान प्रदान किया। ___आज यदि किसी आपवादिक घटना या बात के कारण सम्पूर्ण भट्टारक-परम्परा को ही यदि कोई लांछित या तिरस्कृत करना चाहता है, तो वह कितनी बड़ी भूल कर रहा हैयह विचार लेना चाहिये। जहाँ हमारे यहाँ ऐसे आचार्य हये, जिन्होंने प्रतिदिन दस-पाँच लोगों को जैनधर्म में दीक्षित किये बिना आहार तक नहीं लिया; जिन लोहाचार्य ने अग्रवालों को जैनधर्म में दीक्षित किया। ऐसे महान् आचार्यों की परम्परा से पुष्ट दिगम्बर जैन आम्नाय में उत्पन्न होकर यदि कोई ऐसे संस्कारी दिगंबर जैन की अवहेलना/तिरस्कार आदि करता है, तो उसे विचार लेना चाहिये कि वह कितना परम्परा-विरुद्ध कार्य कर रहा है। हमारे आचार्य तो यहाँ तक लिखते हैं
"सगुणो निर्गुणो वापि श्रावको मन्यते सदा। नावज्ञा क्रियते तस्य तन्मूला धर्मवर्तना।।"
–(आचार्य इन्द्रनन्दि, नीतिसार, 88) अर्थात् एक सामान्य श्रावक वह गुणवान् हो या गुणहीन, उसका सदैव सम्मान ही करना चाहिये; कभी भी उसका अपमान नहीं करना चाहिये, क्योंकि धर्म की प्रभावना इन्हीं के आधार से होगी। अर्थात् सीखेंगे भी ये ही, तथा सीखने-सिखाने में मूल योगदान भी ये ही देंगे।
प्राचीनकाल में आदिब्रह्मा तीर्थंकर ऋषभदेव के पौत्र एवं चक्रवर्ती भरत के पुत्र मारीच ने इन सबकी उपस्थिति में सांख्य आदि मतों का प्रवर्तन किया; तो भरत ने चक्रवर्ती होते हुए भी उसे प्रतिबंधित नहीं किया था, जबकि वह तो जिनधर्म के विरोध में झंडा ऊँचा कर रहा था। तो ये 'भट्टारक' तो जिनधर्म का विरोध भी नहीं करते हैं, अत: इनका निषेध क्यों किया जा रहा है? हाँ ! इतना अवश्य है कि धर्म की मर्यादा के विरुद्ध यदि कोई व्यक्ति 'भट्टारक' पद पर आसीन होकर उसका दुरुपयोग कर रहा है, तो वह निश्चय ही उसका वैयक्तिक दोष है; न कि सम्पूर्ण भट्टारक-परम्परा का। अत: इस लेख के माध्यम से उन जिनधर्म की मर्यादा के विरुद्ध आचरण करनेवालों का पोषण या समर्थन कदापि नहीं समझना चाहिये। किंतु मात्र विरोध के लिए विरोध करना शोभनीय नहीं है। तथा निर्ग्रन्थ मुनि पद छोड़कर लोकैषणा एवं शिथिलाचार के पोषण के लिए भी भट्टारक बनने का यहाँ समर्थन नहीं है। किंतु जिस भट्टारक-परम्परा
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प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000