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भट्टारक-परम्परा
-डॉ० जयकुमार उपाध्ये
जब लोक में कोई सैनिक अपने देश की रक्षा करते हुये शहीद होता है, तो उसके सर्वोच्च अधिकारी एवं राष्ट्राध्यक्ष भी उसके स्मारक के सम्मुख विनम्र होकर नतमस्तक होते हैं; वे यह विचार नहीं करते कि उस सैनिक का रैंक या स्तर क्या था?' क्योंकि उनके लिये सबसे बड़ी महत्ता देश की रक्षा के लिये प्राण न्यौछावर करना होती है। तब जिन्होंने जैनआगम-ग्रंथों एवं सम्पूर्ण संस्कृति की रक्षा के लिये अपना जीवन समर्पित किया और जिनकी यशस्वी परम्परा रही, उन लोगों के लिये समाज क्यों कृतज्ञ नहीं हो? यह विचारणीय आलेख इसी भावना से प्रबुद्ध पाठकों के मननार्थ यहाँ प्रस्तुत है।
-सम्पादक
यद्यपि दिगम्बर जैन आम्नाय में मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका, श्रावक एवं श्राविका के अतिरिक्त कोई अन्य पद मूलत: स्वीकृत नहीं है; तथापि भट्टारक' का पद इन सबके अतिरिक्त होते हुये भी शताब्दियों से चला आ रहा है। ये वस्तुत: न तो श्रावक (गृहस्थ) थे, और न ही मुनि । न तो इन्हें दिगम्बरत्व के अभाव में 'निर्ग्रन्थ' या 'अनगार' कहा जा सकता था और गृहस्थी एवं संसारचक्र में न पड़े होने से इन्हें पूर्णत: 'सागार' भी नहीं कह सकते हैं। ___ इनके द्वारा जैन-परम्परा में 'मन्दिर' एवं 'मकान' के बीच की भी एक अन्य स्थिति प्रचलित हुई, जिसे 'मठ' संज्ञा दी गयी। यह संस्कृति स्पष्टत: संक्रमण-युग की देन थी। जब जाति-द्वेष की प्रबल आँधी ने अविवेक का रूप धारण कर लिया और जैनों के ग्रंथ सुनियोजितरूप से नष्ट किये जाने लगे, तब 'मठों' की संस्कृति का सूत्रपात हुआ। ये मठ शास्त्रों के संरक्षण एवं ज्ञानाराधना के केन्द्र होते थे। इसीलिए इस मठीय संस्कृति को संक्रमण-युग की देन कहा जाता है।
इन मठों में शास्त्र-संरक्षण, उनके प्रतिलिपिकरण, उनके अध्ययन एवं अध्यापन आदि की व्यवस्था को देखने के लिए एक ऐसा व्यक्तित्व अपेक्षित था, जो संसार में अनासक्त रहकर मात्र जिनवाणी की सेवा एवं संरक्षण में अपना जीवन समर्पित कर सके। क्योंकि यदि वह संसार के झंझटों में उलझा रहेगा, तो समर्पित होकर शास्त्रसेवा एवं संरक्षण का दायित्व उस विकट संक्रान्तिकाल में नहीं संभाल सकता था। तथा श्रमणचर्या की प्रतिबद्धताओं के
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प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च '2000