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ने एक जिनधर्म-रक्षण का इतिहास बनाया है, उसके योगदान की उपेक्षा भी सहनीय नहीं है ।
बहुत वर्ष पहिले की बात है, दिल्ली में एक विशाल जैन धार्मिक समारोह हो रहा था। अनेकों श्रेष्ठीगण एवं विद्वान् आये हुये थे। तब एक सुप्रतिष्ठित विचारक श्रीमन्त ने प्रश्न किया था कि “आज लंगोटी खोलते ही व्यक्ति की सारी समाज उसकी पूजा करने लगती है, उसे हाथोंहाथ रखती है; जबकि विद्वानों को कोई नहीं पूछता है। वस्तुतः तो धर्मप्रभावना में पिछली शताब्दियों से पंडितप्रवर आशाधर जी, पांडे राजमल्ल जी, पं० बनारसीदास जी, पं० टोडरमल जी, कविवर दौलतराम जी, रत्नाकर वर्णी, पं० भागचंद जी, द्यानतराय जी, सदासुखदास जी कासलीवाल एवं भूधरदास जी जैसे विद्वानों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। और आज भी गुरु गोपालदास जी बरैया, भट्टारक पूज्य नेमिसागर वर्णी, पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी आदि महामनीषियों द्वारा प्रवर्तित विद्वत्परंपरा जो धर्मप्रभावना कर रही है; क्या समाज ने इसकी कोई कीमत की है ? " यह एक यक्षप्रश्न था, जो आज भी विचारणीय है तथा क्या आज समाज इसका उत्तर देने में समर्थ है ?
मैं इस सन्दर्भ में एक घटना ( 1924 ई०) का उल्लेख करना चाहता हूँ । महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद जिले में पठानों ने जैनों को बलपूर्वक मुसलमान बनाने का निश्चय किया। तब दो-चार जैन भागकर कोल्हापुर के मठ में गये और तत्कालीन स्वस्तिश्री लक्ष्मीसेन भट्टारक जी से रक्षा की विनती की। तब वे भट्टारक श्री कुदले जी नामक विद्वान् को साथ लेकर औरंगाबाद गये तथा इतिहास, संस्कृति एवं परम्परा के प्रमाणों को बताकर जैनधर्म की प्राचीनता एवं स्वतंत्रता सिद्ध की। उनकी बातों का पठानों पर बहुत प्रभाव हुआ, और वह धर्मान्तरण रुक गया।
हमें अपने इतिहास का एवं अपनी परम्परा का ज्ञान रखना चाहिये, इससे हमारी दृष्टि व्यापक बनती है एवं क्षुद्र उद्वेगों में आकर हम किसी पर आक्षेप नहीं करते हैं । जो व्यक्ति अपनी जाति के इतिहास एवं महापुरुषों के यशस्वी कार्यों की परम्परा से अनभिज्ञ होते हैं, वे ही ऐसे यद्वा-तवा वक्तव्य देते हैं कि “भट्टारक नहीं होने चाहिये, अमुक नहीं होने चाहिए, तमुक ठीक नहीं है, उसे बन्द कर दो” – इत्यादि । “स्वजाति - पूर्वजानान्तु यो न जानाति परिचय: ।
नीतिवचन है कि –
स भवेद् पुंश्चली - पुत्रः स्यात् पितृवेधकः । । ”
हमारे इतिहास पर दृष्टि डालें, तो पार्श्वनाथ स्वामी हुये, जिन्होंने हाथी से उतरकर मरणासन्न विषैले नाग-नागिन को 'णमोकार मंत्र' सुनाया । जीवंधर स्वामी ने अपने राजसी वैभव की परवाह किये बिना रुग्ण कुत्ते को 'णमोकार मंत्र' सुनाकर उसकी परिणति सुधारी । ऐसी उदार विचारधारा वाले जैनधर्म में होकर भी तोड़-फोड़ की मानसिकता कैसे बर्दाश्त की जा सकती है? हमें “मत ठुकराओ, गले लगाओ, धर्म सिखाओ" की परम्परा को नहीं छोड़ना है तथा जो साधर्मी हैं, उन्हें धर्ममार्ग में दृढ़ बनाये रखकर अन्य को भी धर्ममार्ग में लगाना है ।
प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च '2000
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