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अहिंसक अर्थशास्त्र
- श्रीमती रंजना जैन
लोक में 'पुरुषार्थ-चतुष्टय' की बात सभी स्वीकार करते हैं, जिनमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष समाहित हैं। इन चार पुरुषार्थों में 'अर्थ' नामक पुरुषार्थ के शाब्दिकरूप से कई पर्यायवाची कहे गये हैं। इनमें प्रयोजन, धन, शब्दार्थ, पदार्थ या वस्तु आदि विशेषतः उल्लेखनीय हैं । पुरुषार्थ-चतुष्टय में इनमें से 'धन' को ही अभिप्रेत माना गया है 1
हमारे देश में उक्त पुरुषार्थ-चतुष्टय के सभी अंगों पर पर्याप्त ग्रंथ लिखे गये हैं । 'अर्थ' पुरुषार्थ पर महामात्य कौटिल्य (चाणक्य) का लिखा 'अर्थशास्त्र' अत्यन्त प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित है । ज्ञातव्य है कि महामात्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का राज्य निष्कंटक करने के उपरान्त नग्न दिगम्बर जैन साधु रूप में दीक्षा लेकर धर्म-मोक्ष-पुरुषार्थों का साधन किया था। ‘अर्थशास्त्र' ग्रन्थ का प्रणयन इसके पूर्व सम्राट् चन्द्रगुप्त के राज्यशासन को निर्विघ्न संचालित करने के लिए मार्गदर्शन - स्वरूप किया था; क्योंकि प्रशासन की पकड़ अर्थतन्त्र के बिना नहीं बनती है ।
जैनाचार्यों एवं मनीषियों ने भी प्रसंगवशात् 'अर्थ' पुरुषार्थ के बारे में महत्त्वपूर्ण निर्देश दिये हैं। यद्यपि जैनदर्शन 'धन' को परिग्रह मानता है तथा इस रूप में वह उसे 'अनर्थ का मूल' भी बताता है—
“अत्थं अणत्थमूलं” – (आचार्य शिवार्य, 'भगवती आराधना', 1808)
वस्तुत: आवश्यकता से अधिक तथा अवरुद्ध - प्रवाह वाले धनसंचय को व्यवहार में भी हम 'अनर्थ का मूल' अनुभव करते है । धन के कारण भाई-भाई में, पिता-पुत्र में, मित्रों में और सगे-सम्बन्धियों में भी आये दिन अनेक प्रकार के झगड़े, उपद्रव और षड्यन्त्रों को घटित होते देखते रहते हैं । इतिहास की घटनायें एवं पौराणिक कथानकों के अतिरिक्त अन्य प्रकीर्णक कथायें भी इस तथ्य की पुष्टि करती हैं ।
फिर भी जैनाचार्यों ने इसके सात्त्विक प्रयोगों के लिए अनेकों ऐसे महत्त्वपूर्ण दिशानिर्देश भी दिये हैं, जिससे इसकी समाजहित एवं राष्ट्रहित में उपादेयता सिद्ध होती । साथ ही व्यक्ति के चारित्रिक निर्माण एवं विकास में भी वे निर्देश अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
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प्राकृतविद्या+जनवरी-मार्च 2000