Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 69
________________ राज्य-प्रशासन एवं संचालन के साथ-साथ परिवार की सुरक्षित उन्नति में 'अर्थ' के स्वरूप का निर्देश करते हुये आचार्य सोमदेव 'नीतिवाक्यामृत' नामक ग्रन्थ में लिखते हैं "आय-व्यय-मुखयोर्मुनि-कमण्डलुरेव निदर्शनम्” – (18/6, पृष्ठ 152) अर्थात् राष्ट्र, संस्था या व्यक्ति की आय का स्रोत जैन मुनिराज के कमण्डलु में जल भरने के मुख के समान बड़ा होना चाहिए तथा खर्च का द्वार कमण्डलु के जल-निकासी-द्वार की भाँति छोटा होना चाहिये। ____ यदि कोई भी राष्ट्र या व्यक्ति अपनी आय से अधिक व्यय करता है, तो उसका पतन सुनिश्चित है; तथा यदि बराबर भी व्यय करता है, तो भी उन्नति कदापि नहीं हो सकेगी। हाँ ! यदि वह आय अधिक एवं व्यय मर्यादित करता है; तो उसकी उन्नति अवश्यंभावी है। यह मंत्र कंजूसी के लिए नहीं, अपितु अपव्ययता पर नियंत्रण के लिए है। अप्रयोजनभूत कार्यों, भौंडे प्रदर्शनों एवं झूठी मान-बढ़ाई के लिए किये जाने वाले खर्च तथा दुर्व्यसनों की पूर्ति के लिए किये जाने वाले खर्च को रोकना इस कथन का उद्देश्य है। मात्र धन-संचय करना यहाँ अभिप्रेत नहीं है। __ जैनाचार्यों ने 'परिग्रह-परिमाणवत' का विधान करके अर्थशास्त्र को लोकहितकारी अहिंसक दिशा प्रदान की है। वस्तुत: अहिंसक रीति से नीति-न्यायपूर्वक कमाया जानेवाला 'धन निश्चय यही 'अर्थ' संज्ञा के योग्य है। हिंसक-रीति, अन्याय-अनीतिपूर्वक कमाया गया धन को तो 'अनर्थ' कहा जाता है; क्योंकि उसके फलस्वरूप दुर्व्यसनों का ही प्रसार होता है। • जैनाचार्यों ने यह भी एक अद्भुत प्रतिपादन किया है कि 'अपार धन का संचय वस्तुत: नीति-न्यायपूर्वक किया ही नहीं जा सकता है।' आचार्य गुणभद्र लिखते हैं___ “शुद्धनिर्विवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः । न हि स्वच्छाम्बुभि: पूर्णा: कदाचिदपि सिन्धवः ।।" -(आत्मानुशासनम्, 45) अर्थ:-सज्जनों के भी अपार सम्पत्ति की प्राप्ति शुद्ध (निर्दोष) धन से संभव नहीं होती है। समुद्र जैसे महान् जलनिधि में जलापूर्ति कभी भी निर्मल जल से नहीं, अपितु वर्षा के मलिन जल से ही होती है। इसका कारण भी है। वह यह कि अपार धन-संचय समाज और राष्ट्र में आर्थिक विषमता को उत्पन्न करता है। और आर्थिक विषमता का मूल 'भ्रष्टाचार' को माना गया है। यह कथन पंचमकाल में धनसंग्रह की प्रवृत्तियों एवं उसके संसाधनों को लक्ष्य में रखकर किया गया है। धनप्राप्ति का कारण तो पूर्वकृत पुण्यभाव है। कहा भी है "पुण्यर्विना न हि भवन्ति समीहितार्थाः ।" – (अमृताशीति, 1-4) पुण्य के भी दो रूप हैं; एक सम्यग्दृष्टि का पुण्य होता है, जो उसे फलस्वरूप प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 1067

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