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दृढ़, सबल और गंभीर था ।
पंडित चैनसुखदास जी अपने समय के अत्यधिक लोकप्रिय एवं श्रद्धास्पद विद्वान् माने जाते थे। जैन समाज के वे शिरोमणि थे । जैन समाज की शैक्षणिक, सामाजिक एवं धार्मिक गतिविधियों में उनकी महती प्रगतिशील भूमिका रहती थी । चार दशक तक उन्होंने जैन-समाज को विभिन्न क्षेत्रों में मार्गदर्शन दिया। बड़े-बड़े राजनेता, श्रेष्ठिगण एवं मुनिवृन्द भी उनकी प्रतिभा एवं समाजोपयोगी प्रगतिशील विचारों से प्रभावित होते. और स्वीकारते थे।
जैनदर्शन के इस मनीषी विद्वान् का जन्म राजस्थान प्रान्त के जयपुर - जिलान्तर्गत भादवा ग्राम के श्री जवाहरलाल जी रांवका की धर्मपत्नी धापूबाई की कुक्षि से घ कृष्णा अमावस्या (22 जनवरी 1990 ) को सूर्यग्रहण के समय हुआ था । इनकी जन्म-कुण्डली में अतिशय विद्या - बुद्धि, यश एवं प्रभाव का असाधारण योग था । बचपन में ही एक पाँव पर पक्षाघात हो गया, जो आजीवन रहा। दस वर्ष की अल्पावस्था में पितृ-वात्सल्य से वंचित होना पड़ा। घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने से माता के साथ सूत भी कातना पड़ा।
प्रारम्भिक शिक्षा 'भादवा' और 'जोबनेर' में प्राप्त कर वे उच्च अध्ययन के लिए 'स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी' के छात्र बने । प्रारम्भ से ही वे कुशाग्र बुद्धि के थे । विद्यार्थी अवस्था में तार्किक शक्ति तीव्र होने से वे अपने साथियों में 'तर्कचन्द्र' के नाम से जाने जाते थे। पं० भूरामल और प्रसिद्ध विद्वान् पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री इनके सहपाठी रहे। वाराणसी से संस्कृत एवं जैनदर्शन का उच्च अध्ययन प्राप्त कर अपने ग्राम लौटने पर उनका भव्य स्वागत हुआ । पैर से लाचार होने पर भी उनके विवाह के. कई प्रस्ताव आये, पर उन्होंने स्वीकार नहीं किये और आजन्म अविवाहित रहे।
पहले अपनी जन्म भूमि भादवा में और फिर 'कुचामन' के समाज ने इनकी विद्वत्तापूर्ण सरल व्याख्यान- - शैली से प्रभावित होकर इन्हें कुचामन के 'दिगम्बर जैन विद्यालय' का प्रधानाध्यापक बनाया । बारह वर्ष तक इस पद पर रहते हुये उन्होंने उस मारवाड़ प्रदेश में अनमेल विवाह, दहेज, कन्या- विक्रय एवं छूआछूत जैसी कुरीतियों में काफी सुधार किया और सर्वत्र प्रशंसा के पात्र बने ।
30 अक्तूबर 1931 को पंडित चैनसुखदास जी जयपुर की प्रसिद्ध 'दिगम्बर जैन महापाठशाला' के अध्यक्ष (प्राचार्य) बने । अब उनका कार्यक्षेत्र समूचा राष्ट्र हो गया । इनके सान्निध्य में सन्निकट और सुदूर स्थानों के छात्र जैनदर्शन एवं संस्कृत के ज्ञानार्जन के लिए प्रवेश पाने लगे। अपने चालीस वर्ष के अध्यापन - काल में पण्डित जी साहब ने अपने अन्तेवासी छात्रों को यथोचित सुशिक्षा प्रदान कर उनको बहुमुखी विकासोन्मुख कर महापाठशाला को महाविद्यालय का स्वरूप प्रदान करते हुए राष्ट्र की गौरवशाली शिक्षण-संस्था
प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च 2000
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