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है। परीक्षणों में इस तरह की घटनाओं को सुख-दु:ख मिश्रित पाया गया है। जन्म के बाद नवजात शिशु जैसा वातावरण देखता है, उसको भी याद रखता है। परीक्षणों में देखा गया है कि जिन बच्चों को पैदा होने के बाद काफी समय तक लाड़-प्यार मिलता है, वे बड़े होने तक अपने सुखद क्षणों की याद संजो रहते हैं।" – (हिन्दुस्तान दैनिक, 5 मार्च, 2000)
आशा है जैनसमाज के विज्ञान-रुचि-सम्पन्न व्यक्ति इस क्षेत्र में ध्यान देंगे और जैनाचार्यों के वैज्ञानिक प्ररूपणों से देश व समाज को अवगत करायेंगे। **
राजा श्रेणिक और कुणिक् मगध के अधिपति राजा श्रेणिक की सहधर्मिणी रानी चेलना के गर्भ में जब राजकुमार कुणिक का जीव आया, तो उसके संस्कारों के कारण चेलना अत्यधिक दुविधाग्रस्त हो गयी। क्योंकि उसके मन में सदैव श्रेणिक से कलह करने एवं उसका अहित करने के विचार आते, जो कि व्यक्तरूप में चेलना कदापि सोच भी नहीं सकती थी। जब कुणिक का जन्म हुआ, तो पालने में लेटा वह अपने पिता राजा श्रेणिक के पास आने पर दाँत किटकिटाता तथा क्रूरतापूर्वक देखता था। बड़े होकर राजा गद्दी संभालने पर कुणिक ने अपने पिता श्रेणिक को जेल में बंदी करके रखा तथा अंतत: वहीं पर कुणिक को आते देखकर उसके अत्याचारों से पीड़ित पिता का संक्लेशपूर्ण देहावसान हुआ। वस्तुत: जो कुणिक के क्रूर संस्कार थे तथा श्रेणिक के प्रति जो विशेष वैरभाव था, वह गर्भकाल में ही प्रकट होने लगा था, और उसका प्रभाव उसकी माँ चेलना के ऊपर भी पड़ा था। कहा जाता है कि उसके गर्भकाल में चेलना को श्रेणिक की छाती से खून बहते देखने का दोहला' हुआ था, जिसे वह भारतीय पतिव्रता नारी होने के कारण व्यक्त नहीं कर पायी थी।
'अरिहंत' 'अरिहंत' जैनशासन के मुख्य परिचायक हैं। जैनों के आराध्यदेव के रूप में जैनेतरों ने भी इनका सबहुमान अनेकत्र उल्लेख किया है। आचार्य विशाखदत्त ने 'मुद्राराक्षसम्' नाटक में इनके बारे में निम्नानुसार उल्लेख किया है
“सासणमलिहताणं पडिवज्जह मोह-बाहि-वेज्जाणं।
जे पढमत्त कडुअं, पच्छा पत्थं उवदिसंति।।" – (4/18, पृष्ठ 351) ' अर्थ:- जो मोहरूपी व्याधि के लिए वैद्य के समान हैं, उन अरिहंतों के शासन (उपदेश) का अनुपालन करो। वे प्रथमत: तो (मोही प्राणियां को) कटुक औषधि के समान उपदेश देते हैं, जो कि बाद में वह पथ्य के समान (बलवर्धक) होता है।
“अलिहताणं पणमामो जे दे गंभीलदाए बुद्धीए।
लोउत्तलेहिं लोए सिद्धिं मग्गेहिं मग्गंति ।।" – (5/2, पृष्ठ 361) अरिहंतों को प्रणाम करता हूँ, जो अपनी गंभीर बुद्धि अर्थात् सर्वज्ञता के द्वारा लोकोत्तर मार्गों से लोक में सिद्धि को प्राप्त करते हैं या सिद्धि का उपदेश देते हैं। **
प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
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