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सात्त्विक एवं नैतिक गुणों को बल देने वाले स्थान को विकसित करवाया। दक्षिण के भाग में जैनविद्या को गाँव-गाँव तक फैलाने का प्रयास किया। जहाँ रात्रि पाठशालायें खोली गईं, वहीं दूसरी ओर जीवनरक्षक मेडिकल कॉलेज, विज्ञान-संवर्धक इंजीनियरिंग कॉलेज तथा प्राकृतभाषा एवं साहित्य के संरक्षण के लिए विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम चालू करवाये गये। और उन्होंने सम्राट् खारवेल के उत्कीर्ण शिलालेख का अवलोकन जो जैन-संस्कृति की गौरवमयी भाषा शौरसेनी का प्रतिनिधित्व करती हैं। ___ आचार्य विद्यानन्द का विद्यानुराग:- साधना ही जिनका जीवन है, वे जीवनदर्शन, साहित्यदर्शन, कर्मदर्शन, सेवादर्शन और आत्मदर्शन आदि की विशाल निधियों से युक्त होते हैं। पर वे ही आचार्य या मुनि प्राचीनतम भाषा और संस्कृति दोनों की ही प्रयोगशाला में बैठकर जब आध्यात्मिक रसास्वादन करते हैं, तब उनके व्यक्तित्व के विविध पहलू ऐसा कार्य भी करते हैं; जो समाज, देश और विश्व के लिए उत्तम सीख बन जाती है। आचार्य विद्यानन्द के बहआयामी व्यक्तित्व ने 'शौरसेनी प्राकृत' के रहस्य को समझा और उसकी गहराई में प्रवेश करने के लिए भारतीय साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद, भरतमुनि के नाट्यशास्त्र, कवि हर्ष, कवि कालिदास, माघ, शूद्रक आदि की प्राकृत-रचनाओं के अतिरिक्त समग्र प्राकृत जैन-साहित्य के भाषा-प्रांगण को नाप डाला। उनके वर्ण-विनोद में अर्थ की गहराई को खोजने का कार्य किया। जिसके परिणामस्वरूप शौरसेनी प्राकृत की प्राचीनता मान्य हुई। उसके अवगाह से जहाँ स्वयं ने इसको गति प्रदान की, वहीं आध्यात्मिक क्षेत्र में पाठकों को बाध्य किया कि शौरसेनी न केवल साहित्य की दृष्टि से प्राचीन है; अपितु अभिलेखी दृष्टि से भी वह प्राचीन है। और तीर्थंकर नेमिकुमार से प्रचलित सूरसेन अर्थात् मथुरा के आसपास की भाषा शौरसेनी है। यह प्रमाणित भी है और सत्य भी है। विद्वानों के लेखों एवं विचारों से भी यह पुष्ट है। आचार्यश्री के इसी केन्द्रबिन्दु को ध्यान में रखकर प्राकृत भवन, प्राकृतविद्या पत्रिका, कुन्दकुन्द भारती संस्थान एवं प्राकृत के मनीषी विद्वानों के कार्य की प्रशंसा हेतु पुरस्कार आदि सराहनीय कार्य प्रवर्तित हुए हैं। आचार्य का यही प्रयत्न नहीं है, अपितु आचरणात्मक नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए दिल्ली में प्राकृत के विविध पाठ्यक्रम भी चलाने के लिए समाज को आगे किया और उन्हीं के प्रयत्नों से लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, (मानित विश्वविद्यालय) में 'शास्त्री' और 'आचार्य' अर्थात् बी०ए०, एम०ए० तथा विद्यावारिधि' (पीएच०डी०) की उपाधि तक के प्रयास हमारी प्राचीन प्राकृतविद्या को गतिमान बनाने में सहायक हैं और आगे भी रहेंगे। ___ सच पूछा जाये तो आचार्य विद्यानन्द की लगभग 75 वर्ष की यात्रा समकालीन समाज को जो अवदान प्रदान करती रही है या कर रही है; वह हृदय की सच्ची और निश्चल भावना से समादरणीय है।
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प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000