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का धारणकर्ता एवं प्रवक्ता कोई था ही नहीं, क्योंकि अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु से परम्परित आगम (ज्ञान) को समकालीन और उत्तरकालीन आचार्यों ने ग्रहण कर उसे कालान्तर में लिपिबद्ध किया। यद्यपि श्रुतकेवली भद्रबाह के काल में ही जैन-परम्परा दो भागों में विभाजित हो गई थी। पहली परम्परा वह थी, जो तीर्थंकर महावीर और उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों द्वारा आचरित एवं प्रतिपादित आचार को बिना किसी संशोधन एवं शिथिलता के ग्राह्य कर उसी का अनुसरण करती, रही उसे ‘दिगम्बर-परम्परा' या 'मूलसंघ' के नाम से जाना जाता रहा। द्वितीय वह परम्परा विकसित हुई, जिसने परिस्थितिवश मूल आचार में यथावश्यक संशोधन कर उसमें नवीन व्यवस्थाओं का समावेश किया। यह परम्परा 'श्वेताम्बर परम्परा' के नाम से ख्यापित हुई। परिणामस्वरूप मूल 'अंगश्रुत' और 'अनंगश्रुत' को लिपिबद्ध करने और उसका संरक्षण करने में व्यवधान उपस्थित हुआ। ___ तथापित कालान्तर में कतिपय ऐसे आचार्य हुए, जिन्होंने अंगश्रुत के आश्रय से श्रुत की रक्षा करने का प्रयत्न किया। उसी प्रयत्न का सुपरिणाम है कि 'छक्खंडागम' और 'कसायपाहुड' जैसे ग्रंथों की रचना हुई और आज वे हमारे समक्ष विद्यमान हैं। आचार्य कुन्दकुन्द जैसे प्रखर तत्त्ववेत्ता और मनीषी लगभग उसी समय के दिगम्बर जैनाचार्य हैं; जिन्होंने 'समयपाहुड' सहित चौरासीपाहुड की रचना की। उन्हें अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु से परम्परित आगम का ज्ञान था, जिसका आभास समयपाहुड की निम्न गाथा से मिलता है- 'वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली-भणिदं ।'
इसप्रकार आरातीय आचार्यों द्वारा मूलश्रुत (आगम) के अनुरूप प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग पर आधारित ऐसे अनेक ग्रंथों की रचना की गई, जो हमें जैनधर्म की गहराइयों में ले जाकर उसके गूढ़ तत्त्वों एवं रहस्यों का ज्ञान कराकर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यद्यपि श्रुतज्ञान के आधार पर रचित ग्रंथों की संख्या प्रचुर एवं विशाल है, तथापि द्वादशांग श्रुत की अपेक्षा वह अत्यल्प और नगण्य है। संक्षेप में यदि श्रुताधारित ग्रंथों का आंकलन किया जाय, तो विक्रम की प्रथम पूर्व विक्रम की प्रथम शताब्दी में रचित ग्रंथों को इस श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। इसमें सर्वप्रथम आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि द्वारा रचित 'छक्खंडागम' और इनके ही समकालीन आचार्य गुणधर द्वारा रचित 'कसायपाहुड' को परिगणित किया जा सकता है। ___ इनके कुछ काल बाद ही आचार्य यतिवृषभकृत 'कषायप्राभृत-चूर्णि' की रचना हुई। विक्रमपूर्व प्रथम शताब्दी के ही उद्भट् मनीषी श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित समयपाहुड, पवयणसार, पंचत्थिकायसंगहो एवं अष्टपाहुड आदि ग्रंथ मिलते हैं। इनके समकालीन ही आचार्य वट्टकेर हुए जिन्होंने 'मूलाचार' (आचारांग) नामक ग्रंथ की रचना कर परम्परित आगम ज्ञान की रक्षा की। आचार्य शिवार्य द्वारा रचित 'मूलाराधना' नामक ग्रंथ
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प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000