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उसीप्रकार सर्वज्ञ द्वारा उपदेशित अर्थरूप आगम का अंश होने से आरातीयों द्वारा कथित या रचित ग्रंथ भी प्रमाण हैं।"
वर्तमान अवसर्पिणी काल' में भरतक्षेत्र में अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर हुये हैं। तीर्थंकर महावीर के मोक्ष जाने के पश्चात् उनके शासन (जिनशासन) में परम्परित तीन अनुबद्ध केवली और पाँच श्रुतकेवली हुये हैं, जिनमें प्रथम तीन गणधर गौतम स्वामी, सुधर्म स्वामी और जम्बूस्वामी थे तथा अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। उन तक अंगश्रुत अपने मूलरूप में आया। वर्तमान में जो भी श्रुत या आगम उपलब्ध है, वह अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा ही भणित है। वस्तुत: भगवान् जिनेन्द्रदेव जो जानते हैं, वह अनन्त होता है, वे जो कुछ कहते हैं; वह उसका अनन्तवां भाग (जिनवाणी) होता है। इसके पश्चात् जो गणधर उसे ग्रहण करते हैं, वह उसका भी अनन्तवां भाग होता है। इसप्रकार उन केवलियों तक वह अंग श्रुत अपने मूलरूप में आया। उसके बाद बुद्धिबल और धारणा शक्ति के उत्तरोत्तर क्षीण होते जाने से तथा बहुआयामी उस ज्ञान को पुस्तक (ग्रंथाकार) रूप में किये जाने की परम्परा नहीं होने से वह ज्ञान शनैः शनैः क्रमश: क्षीण होता चला गया। इसप्रकार एक ओर जहाँ अंगश्रुत का अभाव होता जा रहा था, वहाँ दूसरी ओर श्रुत परम्परा को अविच्छिन्न बनाये रखने के लिये सतत प्रयत्न भी होते रहे।
शास्त्रों में श्रुत के दो भेद बतलाये गये हैं- एक 'अंगश्रुत' जिसे 'अंगप्रविष्ट' भी कहते हैं और दूसरा 'अनंगश्रुत' जिसे 'अनंगप्रविष्ट' या 'अंगबाह्य' भी कहते हैं। 'जयधवला' में श्रुतज्ञान के भेद प्रभेदों का विस्तारपूर्वक सांगोपांग विवेचन करते हुए बतलाया गया है। "ज्ञान के पाँच अर्थाधिकार हैं—मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। श्रुतज्ञान के दो अधिकार हैं—अनंगप्रविष्ट और अंगप्रविष्ट । इसमें अंगप्रविष्ट वह है, जो तीनों काल के समस्त द्रव्यों एवं पर्यायों को अंगति अर्थात् प्राप्त होता है या व्याप्त करता है अथवा समस्त श्रुत के एक-एक आचारादि रूप अवयव 'अंग' कहलाते हैं। इसप्रकार आचारादि द्वादशविध ज्ञान 'अंगप्रविष्ट' कहलाता है। 'राजवार्तिक' (1/20/12-13) के अनुसार भी “आचारादि-द्वादशविधमंगप्रविष्टमित्युच्यते।"
गणधरदेव के शिष्य-प्रशिष्यों और अल्पायु-बुद्धि-बलवाले मनुष्यों के अनुग्रहार्थ उपर्युक्त अंगों के आधार पर संक्षेपरूप में रचित लघुकाय-ग्रंथ 'अंगबाह्य' के अन्तर्गत आते हैं। अंगबाह्य या अनंगश्रुत के चतुर्दश भेद हैं। यथा—सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प व्यवहार, कलप्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका। सर्वार्थसिद्धि' में इनमें से केवल 'उत्तराध्ययन' और 'दशवैकालिक' का ही उल्लेख किया गया है और शेष का समावेश आदि शब्द के अन्तर्गत कर लिया गया। ___ 'धवला' टीका के आधार से ज्ञात होता है कि इनकी रचना भी गणधरों ने की थी.
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प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च '2000