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अविच्छिन्न ज्ञाता और द्रष्टा होते हैं, वे त्रिकालदर्शी हैं और इसीलिये वे 'आप्त' संज्ञा से सम्बोधित किये जाते हैं। __ केवलज्ञान के पश्चात् श्रुतज्ञान की महत्ता प्रतिपादित की गई है। श्रुतज्ञान की उपलब्धि तब होती है, जब वह श्रुतज्ञान बाह्य पदार्थों में नहीं जाकर आत्मस्थ होता है। श्रुतज्ञान वस्तुत: आत्मस्वभाव की प्राप्ति के लिए महत्त्वपूर्ण साधना होता है। उस श्रुतज्ञान के माध्यम से जो स्वयं को तपाता है, वह केवलज्ञान' प्राप्त कर लेता है। अत: केवलज्ञान वस्तुत: श्रुतज्ञान का फल है, जो सर्वपदार्थ-विषयक होता है। वस्तुत: केवलज्ञान की प्राप्ति में जितना महत्त्व श्रुतज्ञान का है, उतना महत्त्व अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान का नहीं है। जो इसप्रकार के श्रुतज्ञान के धारक होते हैं, वे 'श्रुतकेवली' कहलाते हैं और वे श्रुतकेवली समस्त श्रुत के धारक होने से श्रुत में प्रतिपादित प्रत्येक विषय को स्पष्टत: जानते हैं।
श्रुतकेवली के विषय में श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्य 'समयपाहुड' में लिखते हैं—“जो जीव वस्तुत: श्रुतज्ञान-भावश्रुत से उस अनुभवगोचर केवल एक शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है, उसको लोक के प्रकाशक ऋषिगण 'श्रुतकेवली' कहते हैं।"
पुन: आगे की गाथा में वे लिखते हैं-"जो जीव सम्पूर्ण श्रुतज्ञान (द्वादशांग रूप द्रव्यश्रुत) को जानता है, उसे जिनेन्द्रदेव 'श्रुतकेवली' कहते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण श्रुतज्ञान (द्रव्य श्रुतज्ञान के आधार से उत्पन्न भावश्रुत) आत्मा है, इसीकारण उसके धारण कर्ता 'श्रुतकेवली' होते हैं।"
_ 'पवयणसार' में भी श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्य ने उपर्युक्त भाव का प्रतिपादन करते हुए कहा है-"जो जीव श्रुत (ज्ञान) से अपनी आत्मा को ज्ञाता स्वभाव से जानता है, उसको लोक के प्रकाशक ऋषिगण 'श्रुतकेवली' कहते हैं।"
'सर्वार्थसिद्धि' में श्री पूज्यपाद स्वामी ने श्रुतज्ञान के दो भेद, अनेक भेद तथा द्वादश भेद बतलाते हुये उसे वक्ता-विशेषकृत कहा है। उनके अनुसार वक्ता तीन प्रकार के हैंसर्वज्ञ (तीर्थंकर या सामान्यकेवली), श्रुतकेवली और आरातीय। इनमें से परमऋषि सर्वज्ञ उत्कृष्ट और अचिन्त्य केवलज्ञानरूपी विभूति विशेष से युक्त हैं। इसकारण उन्होंने अर्थरूप आगम का उपदेश दिया। ये सर्वज्ञ प्रत्यक्षदर्शी और दोषमुक्त हैं, इसलिये प्रमाण है। इनके साक्षात् शिष्य और बुद्धि के अतिशयरूप ऋद्धि से युक्त गणधर श्रुतकेवलियों ने अर्थरूप आगम का स्मरण कर 'अंग' और 'पूर्व' ग्रंथों की रचना की। सर्वज्ञदेव की प्रमाणता के कारण ये भी प्रमाण हैं तथा आरातीय-आचार्यों ने कालदोष से जिनकी आयु, मति और बल घट गया है, ऐसे शिष्यों के अनुग्रह के लिये 'दशवैकालिक' आदि ग्रंथों की रचना की। वह भी सर्वज्ञ द्वारा ही कथित है, अत: अर्थत: प्रमाण है। जिसप्रकार क्षीरसागर का जल जब घट में भर लिया जाता है, तो वह भी क्षीरसागर का ही जल' कहलाता है,
प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
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