Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 57
________________ और अंगश्रुत के अस्तित्व काल में ये विद्यमान थे। किन्तु काल के प्रभाव से जिसप्रकार अंगश्रुत को धारण करनेवाले श्रमणों की धी-धृति-स्मृति और धारण करने की शक्ति क्रमश: क्षीण होती जाने से अंगश्रुत का अभाव हो गया; उसीप्रकार अंगबाह्य (अनंगश्रुत) को धारण करनेवाले मुनियों - श्रमणों का क्रमश: अभाव हो जाने से अंगबाह्य श्रुत से संबंधित ग्रंथों का भी अभाव होता गया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि एकप्रकार से हम मूलश्रुत से ही सर्वथा वंचित हो गये। ___ 'जयधवला' में प्रतिपादित विवरण के अनुसार अंगप्रविष्ट श्रुत के बारह अर्थाधिकार हैं। यथा—आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्त:क्दशांग, अनुत्तरौपपादिक-दशांग, प्रश्न-व्याकरणांग, विपाकसूत्र और दृष्टिवादांग।' 'सर्वार्थसिद्धि' में भी अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान के उपर्युक्त बारह भेद प्रतिपादित किये गये हैं। __इनमें बारहवां जो 'दृष्टिवादांग' है, उसके पाँच भेद बतलाये गये हैं—परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। 'परिकर्म' में पाँच अर्थाधिकार हैं—चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूदीप-प्रज्ञप्ति, द्वीपसागर-प्रज्ञप्ति और व्याख्या-प्रज्ञप्ति। सूत्रश: से अठासी अर्थाधिकार हैं, परन्तु उन अर्थाधिकारों का नामोल्लेख या वर्णन उपलब्ध नहीं होने से तद्विषयक जानकारी नहीं है। वर्तमान में उनके विषय में कोई उपदेश भी नहीं पाया जाता है। 'प्रथमानुयोग' में चौबीस अर्थाधिकार हैं, क्योंकि चौबीस तीर्थंकरों के पुराणों में सभी पुराणों का अन्तर्भाव हो जाता है। चूलिका' में पाँच अर्थाधिकार है—जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता। 'पूर्वगत' के चौदह अधिकार हैंउत्पादपूर्व, अग्रायणीपूर्व, वीर्यानुप्रवादपूर्व, अस्तिनस्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, कर्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, विद्यानुप्रवादपूर्व, कल्याणप्रवादपूर्व, प्राणावायप्रवादपूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकबिन्दुसारपूर्व।' इनमें 'उत्पादपूर्व' के दस, ‘अग्रायणीपूर्व के चौदह, वीर्यानुप्रवादपूर्व' के आठ, 'अस्तिनास्तिवादपूर्व' के अट्ठारह, 'ज्ञानप्रवादपूर्व' के बारह, 'सत्यप्रवादपूर्व' के बारह, 'आत्मप्रवादपूर्व' के सोलह, 'कर्मप्रवादपूर्व' के बीस, 'प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व' के तीस, विद्यानुप्रवादपूर्व' के पन्द्रह, 'कल्याण प्रवादपूर्व' के दस, 'प्राणावायप्रवादपूर्व' के दस, क्रियाविशालपूर्व' के दस और लोकबिन्दुसार प्रवादपूर्व' के दस अर्थाधिकार हैं, जिनका नाम 'प्राभृत' या 'पाहुड' है। उन 'प्राभृत' संज्ञा वाले अधिकारों में से प्रत्येक अर्थाधिकार के चौबीस अनुयोगद्वार हैं। इसका विवरण 'जयधवला' में मिलता है। उपर्युक्त विवरण में द्वादशांग श्रुत की विवक्षा की गई है। इस विवक्षा के अन्तर्गत द्वादशांग श्रुत के भेद-प्रभेदों को देखने से श्रुत की विशालता का आभास सहज ही हो जाता है। कालप्रभाववश, परिस्थितिवश अथवा किन्हीं अन्य कारणों से आज हम मूल अंगश्रुत से वंचित हैं। यद्यपि यह कहना उचित नहीं है कि उत्तरकाल में द्वादशांग श्रुत प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 00 55

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