Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 21
________________ दर्शन- ज्ञान के अनुसार उपयोग अर्थात् योग का सामीप्य चारित्र - पालन होता है । इसप्रकार ज्ञानोपयोग यह शब्द सम्यग्दर्शन - ‍ - ज्ञान - चारित्र का प्रतिपादक है । जैसे, भवन की देहली पर धरा हुआ दीपक प्रकोष्ठ के भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश करता है, वैसे ज्ञानोपयोग शब्द दर्शन और चारित्र का समाहार करता है । फलितार्थ यह हुआ कि दर्शन- - चेतनायुक्त जीवन ( आत्मा ) निरन्तर अपने चारित्रात्मक उपयोग में लगा -ज्ञान रहे । बिना ज्ञान चारित्र व्यर्थ यद्यपि जीव ज्ञान-चेतनात्मक है, तथापि उसका ज्ञानपरक उपयोग यदि नहीं किया जाये, तो सक्रिय हुआ मनोव्यापार व्यक्ति के लिये अनर्थ - परंपराओं की सृष्टि करने लगेगा; अत: जैसे खंगधारा को तेज किया जाता है, वैसे आत्मतत्व - विषयक नित्य निमग्नता के लिए ज्ञान का उपयोग करते रहना ही आत्मोपलब्धि का मार्ग है । सम्यग्दर्शन का फल सम्यग्ज्ञान है और सम्यक्चारित्र सम्यग्ज्ञान से परिशीलित है। बिना ज्ञान के चारित्र व्यर्थ है। “क्लिश्यन्तां स्वयमेव... ज्ञानं ज्ञानगुणं बिना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते नहि” —यह श्लोक पुकार -पुकार कर कहता है कि चारित्र का पालन ज्ञानपूर्वक होना चाहिये । अन्यथा अज्ञान से, प्रमाद से, उन्माद से कोई नग्न हो जाये और संयोग से उसे मोरपंख और कोई तुम्बी पड़ी मिल जाए, तो उन्हें उठाकर वह महाव्रती निर्ग्रन्थ तो नहीं बन जायेगा। दिगम्बर- मुद्रा (वीतराग मुद्रा) उसी के मानी जायेगी, वही अष्टविंशति मूलगुणों का पालक है, गुरु-परम्परा से दीक्षित है । सर्वोच्च स्थिति ‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' गीता में कहा है कि ज्ञान के समान पवित्र कुछ नहीं है। स्व-पर-विवेक, हेयोपादेय-विज्ञान, आत्मरति तथा परविरति ज्ञानोद्भव होती है। इसी विचार से महाव्रती साधु अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में लगे रहते हैं । सर्वज्ञ शब्द ज्ञान की सर्वोच्च स्थिति है। ध्यानाग्नि में सब कर्म क्षणमात्र में भस्म हो जाते हैं और वह ध्यानाग्नि ज्ञान - रूप काष्ठ से प्रकट होती है । अन्धकार में नहीं डूबता स्वाध्याय ज्ञानोपयोग का व्यवहारमार्ग है और मैं शुद्ध, मुक्त परमात्मा हूँ। आत्मस्वरूप हूँ, वह ज्ञानोपयोग का निश्चय परिणाम है । जैसे हम ग्रन्थ के अक्षरों को अर्थ रूप में परिणत कर उपयोगी बना लेते हैं, वैसे ज्ञान से विश्व के समस्त पदार्थ अपने वास्तविक स्वभाव में प्रतीत होने लगते हैं । अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी अज्ञान के अन्धकार में नहीं डूबता; क्योंकि ज्ञानोपयोगरूप सूर्य को जाग्रत रखता है। प्राकृतविद्या+ जनवरी-मार्च '2000 OO 19

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