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तिनके से क्षीर-समुद्र
गो-रहित भारतीय संस्कृति की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्राणीशास्त्र का अध्ययन अनुसंधान करनेवाले पुराण-भारतीयों ने गाय को पृथ्वी के समान गुणशील कहा है। नीतिकार कहते हैं—तृणं भुक्त्वा पय: सूते कोऽन्यो धेनुसम: शुचिः' (अहो ! तिनके चबाकर दूध, उत्पन्न करनेवाली गो के समान और कौन पवित्र है?) यह भारतीयों द्वारा किया गया धेनु-सम्बन्धी निकट का अध्ययन है। इसमें यदि किसी को पक्षपात की गन्ध आये, तो वह गो के इतर पशुओं से विशिष्ट गुण के कारण है। गाय जब जलाशय पर पानी पीने जाती, है तो किनारे पर खड़ी रहकर पी लेती है; परन्तु गाय के समान अथवा उससे भी अधिक दूध देनेवाली महिषी (भैंस) जलाशय में उतरकर उसे मलिन कर देती है। खेतों में चरती हुई गाय घास का मूलोत्पाटन नहीं करती, ऊपर-ऊपर से उसे चर लेती है; जबकि अन्य पशु अपनी जिह्वा और ओष्ठ-सम्पुट का दृढ़ आकुंचन कर मूल उखाड़कर खा जाते हैं। संभवत: इसीलिए श्रमण-जैन-साधु अपनी चर्या के लिए गोचरी' शब्द व्यवहार करते हैं; क्योंकि वे अनेक गृहस्थों को अबाधित रखते हुए भिक्षा ग्रहण करते हैं। गौचर्या और गोचरी
दिगम्बर-सम्प्रदाय के आहार-विषय में कहा जा सकता है कि दिन निकलने के पश्चात् जिस समय (प्राय: 9-10 के बीच) गौयें चरने के निमित्त गोचर-भूमियों के लिए प्रस्थान करती हैं, वह समय मुनियों के आहार का होता है। इसप्रकार गृहस्थ ही नहीं, संन्यास-धर्म का रक्षण करने वाले मुनि, साधुजन भी गौओं के विहार से अपनी-चर्या का अनुबन्ध बताते हैं। 'गोचरी' शब्द का एक अन्य अभिप्राय और भी हृदयंगम करने योग्य है। कहते हैं, जिसप्रकार गौ घास लाकर रखने वाले व्यक्ति की ओर लक्ष्य न रखकर तृण-भक्षण की ओर ही अपना ध्यान लगाती है, उसीप्रकार आहार-निमित्त गृहस्थ के यहाँ पहुँचा साधु आहार-कवल देने वाले की अंग-चारुता, वेषविन्यास, अथवा सौंदर्य पर ध्यान नहीं रखकर गोचरी-ग्रहणमात्र का शास्त्र-विधि-सम्मत ध्यान रखता है। इसप्रकार गौ के स्वभाव पर चर्या के शब्द का निर्माण करने वाले शास्त्रकारों ने गौ में इतर पशुओं से विशिष्ट गुण का अनुसन्धान कर उचित सम्मान दिया है। गायें : आगे, पीछे, सर्वत्र
कृषि-प्रधान भारत के सूक्तिकारों ने “गोभिर्न तुल्यं धनमस्ति किंचित्' –गोवंश के तुल्य अन्य धन नहीं है, कहते हुए गौ को भारतीयों का धन कहा है। पुराणों में गृहस्थों और नृपतियों के वैभव का वर्णन-परिचय उनके गौ-बहुल होने से किया गया है। आश्रम में नवागत शिष्य को प्राय: 'गाश्चारय' (गाय चराकर लाओ) से अध्ययनारम्भ कराया जाता था। सारे देश में घर-घर में गोपालन हो, इसी भावना से प्रत्येक दानादि धार्मिक अवसर पर दक्षिणारूप में गोदान होता था। प्राय: ऐसे सत्रों पर दाता ग्रहीता को वर्ष-भर के लिए
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प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च '2000