________________
गोरक्षा से अहिंसक संस्कृति की रक्षा
-आचार्य विद्यानन्द मुनिराज
प्राणीमात्र के प्रति समभाव रखनेवाले अहिंसकवृत्तिप्रधान जैनधर्म में सम्पूर्ण प्राणियों एवं पर्यावरण के प्रति अनन्य हितचिंतन उपलब्ध होता है। जैनधर्म किसी प्राणी विशेष की रक्षा के प्रति पक्षधर कभी नहीं रहा, अपितु प्राणीमात्र के प्रति दयालुता एवं उसकी प्राणरक्षा का शुभ संकल्प इसका मूलमंत्र रहा है। 'गो' शब्द आज रूढ़ अर्थ में 'गाय' नामक पशुविशेष का वाचक हो गया है। प्राचीन सन्दर्भो में इसे पशुमात्र एवं प्राणीमात्र का वाचक भी माना गया है। एक निर्ग्रन्थ संत के अनुपम चिंतन से प्रसूत यह प्रभावी आलेख निश्चय ही आज के आन्दोलनों एवं आन्दोलकों को सही दृष्टि प्रदान कर सकेगा। ज्ञातव्य है कि यह आलेख आज से लगभग 25 वर्ष पूर्व लिखा एवं प्रकाशित हुआ था, तब आज के आन्दोलनों एवं आन्दोलकों का अंकुरण भी नहीं हुआ था। वर्तमान में जब गुजरात, राजस्थान आदि प्रांतों में अकाल की विभीषिका के कारण लाखों पशु पानी एवं चारे के अभाव में मर रहे हैं, तब ये गौरक्षा आन्दोलन वाले कहाँ मुँह छिपाये बैठे हैं। यह भी विचारणीय है। -सम्पादक
कामना-कलश की पूर्ति
- आज भारतवर्ष गोवंश के लिए अभिशाप-भूमि बन रहा है। जिस देश की संस्कृति, सभ्यता और जीवन गोवंश की समृद्धि पर आश्रित हों, उसी में उसके लिए अरक्षणीय स्थिति का उत्पन्न होना, वास्तव में शोचनीय है। कृषि के महान् उपकारक, सात्त्विक शाकाहार को अमृतरस प्रदान करनेवाले गोवंश का ऋण अमाँसभोजी परिवार की पीढ़ियाँ भी नहीं चुका सकेंगी। शाकाहारी और अहिंसक समाज ने गोवंश से जितना दूध पिया है, उतना पानी भी पिलाने में वह अनुदार दिखायी दे रहा है। यथार्थ में देखा जाए तो गोवंश अहिंसक समाज-रचना का मुख्य आधार है, उसकी प्रथम आवश्यकता है। शाकाहारियों की रसोई का रसमय आलम्बन घृत, दुग्ध, दधि, नवनीत, तक्र, खोवा (मावा) और अनेक संयोगी व्यंजन गो के अमृतमय स्तन्य की देन है। जननी के दूध को बालक कुछ वर्षों पीता है, परन्तु गो-दुग्धपान तो वह जीवन-भर करता है। जननी केवल अपने शिशु-पुत्र को स्तन्यपान कराती है, परन्तु गाय अपने वत्स को पिलाने के साथ-साथ मानव की इच्छाओं के कलश को भी दूध से आकण्ठ-पूरित करती है; इसीलिए यहाँ गो को गृह्य-पशुओं में सर्वप्रथम स्थान दिया गया और गोधन गजधन वाजिधन' कहते हुए, उसे धन-सम्पत्ति भी स्वीकारा गया।
प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
40-45