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श्रावकों और मुनियों-संबंधी उक्त दोनों पद्यों का जो अनुवाद प्रकाशित है, उनसे तो यही मालूम पड़ता है कि उक्त कंद आदि अग्नि में पकने पर खाद्य हैं। यहाँ त्याग की दृष्टि से आचार्य का लिखना उचित है; क्योंकि सूत्ररूप में वाक्य लिखना पूर्वाचार्यों का उद्देश्य रहा है।
श्रावकों के लिए समाधान यह है कि जैन अहिंसक होता है। जो हिंसा के कारण हैं, उनसे वह सदा दूर रहता है। उसके आहार-विहार में अहिंसा का पालन होता है। मद्य, मांस, मधु, पंच उदम्बर फल, कन्द (आलू, शकरकंद, गाजर, मूली आदि) बेगन, दहीबड़ा, रात्रि अन्नाहार, अमर्यादित अचार आदि 22 अभक्ष्य के आरंभ का 'पाक्षिक' श्रावक (अहिंसा का पक्ष रखनेवाला) की प्रथम अवस्था से ही त्याग होता है। श्रावक के बारह व्रतों में जब वह पंच अणुव्रतों को दृढ़ करते हुए गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों को धारण करता है; तब ‘भोगोपभोग-परिमाणवत' के अन्तर्गत
“अल्पफल-बहुविघातान्मूलकमाईणि श्रृंगवेराणि। नवनीतं निंबकुसुमं मेतकमित्येवमवहेयम् ।।"
-(रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 84) अर्थ:-श्लोक 83 में मद्य, मांस, मधु-त्याग का कथन आया है। उनके साथ ही इस श्लोक में लाभ कम और जीवहिंसा-बहुल ये मूली, अदरक, श्रृंगबेर, मक्खन, निंब के फल, केतकी-पुष्प इत्यादि को भी त्यागना चाहिये। यह कहा गया है। इनमें अनंतानंब बादर निगोदिया जीव तो रहते ही हैं और त्रस-जीवों की भी शंका रहती है; अत: इन जीवों की हिंसा से श्रावक को बचना चाहिये। ___ यहाँ प्रकरणवश भोग के अंतर्गत मद्य, मांस, मधु आदि का त्याग बताया है; जिनका श्रावक आजीवन त्याग करता है। इसका यह अर्थ नहीं लेवें कि इस व्रत के पूर्व श्रावक मद्य, मांस आदि का त्यागी नहीं था। क्योंकि रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में पाक्षिक, नैष्ठिक, साधक इन श्रावक के दों का वर्णन नहीं कर प्रारंभ से ही 12 व्रतों का 11 प्रतिमाओं का वर्णन किया। यही बात चौथी प्रतिमा 'सचित्तविरत' में ही जान लेना चाहिये। वहाँ श्लोक 141 में मूलफल-शाक आदि जो श्लोक है, उसमें जो 'मूल-फल-शाक-शाखा-करीर-कन्द' आदि अभक्ष्य फल आये हैं, इनका त्याग क्या इस प्रतिमा में होता है। उसके पहले यह श्रावक तीसरी प्रतिमा तक खाता था? यहाँ भी प्रकरणवश ये नाम सचित्त के अंतर्गत आये हैं। किन्तु यहाँ पूर्ववत् यह नियम है
"स्वगुणा: पूर्वगुणैः सह संतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धा।" अर्थ:-पूर्वव्रतों के साथ आगे के व्रत पालन किये जाते हैं।
यह तथ्य रत्नकरण्ड श्रावकाचार' के कर्ता आचार्य समंतभद्र, जो कि विक्रम की द्वितीय शताब्दी के प्रमुख आचार्य थे, के द्वारा कहा गया है।
प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
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